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स्थूल शरीर का आध्यात्मिक महत्त्व
आज मैं उस महाग्रंथ की चर्चा कर रहा हूं जिसे हजारों-हजारों लोगों ने पढ़ा, हजारों बार पढ़ा, पर उसका एक पृष्ठ भी समझ में नहीं आया और अब तक भी नहीं आया । महाग्रंथ जिसकी हर पंक्ति पर अर्द्ध विराम और पूर्ण विराम है, जिसकी यात्रा न जाने कितने लोगों ने की पर पहुंचना कठिन रहा । वह महाग्रंथ किसी महान् ग्रंथकार, किसी महाकवि के द्वारा लिखा हुआ नहीं है, किन्तु एक प्रकृति-प्रदत्त रचना है | वह महाग्रंथ है हमारा शरीर | ___आश्चर्य है कि जिस शरीर में हम रहते है, जिस शरीर में हम जीते हैं, उसे पढ़ नहीं पाते । पूरा नहीं पढ़ पाते, अधूरा भी नहीं पढ़ पाते, अधूरे की चर्चा भी नहीं करते । कुछ भी शायद नहीं पढ़ पाते ।।
दो हाथ, दो पैर, सिर, हृदय, फेफड़ा—इन अनेक अवयवों से बना है हमारा शरीर । कुछ धातुएं हैं, कुछ रसायन हैं | योग मिला, शरीर बन गया । डिम्बाणु और शुक्राणु का योग मिला, शरीर निर्मित हो गया । छोटासा जन्मा । समय के परिपाक के साथ बड़ा बन गया । इस शरीर के द्वारा मनुष्य खाता है, पीता है, बोलता है, चलता है, काम करता है । शरीर का बहुत मूल्य है । प्रत्येक अवयव का मूल्य है | हाथ का मूल्य तब समझ में आता है जब पानी पीने की जरूरत होती है, लिखने की जरूरत होती है, काम करने की जरूरत होती है । अंगुलियों का मूल्य समझ में आता है । अंगूठे का मूल्य समझ में आता है | यदि अंगुलियां न हों तो हमारा सारा विकास असंभव बन जाए । अंगुलियां हों और अंगूठा न हो तो विकास की कल्पना ही नहीं की जा सकती । ये दो दिशाओं में खड़े हैं—एक दिशा में हमारी चार अंगुलियां और दूसरी दिशा में सामने खड़ा है अंगूठा । दोनों विरोधी
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