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१८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता दर्शन का पूरा विकास हो और उसके साथ-साथ चारित्र का भी विकास हो । एक का विकास व्यक्तित्व निर्माण का घटक नहीं हो सकता । उससे सर्वांगीण व्यक्तित्व निर्मित नहीं हो सकता । तीनों के विकास से ही यह संभव है । __जब जीवन का यह उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है तब मानसिक, बौद्धिक और आर्थिक समस्याओं का समाधान उपलब्ध हो जाता है । फिर जीवन की समग्र समस्याएं समाहित हो जाती हैं |
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