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जीवन का उद्देश्य / १७ होता है और नहीं होता है तो कोई आश्चर्य नहीं होता | हमारी सारी धारणाएं विरोधाभासों के साथ पलने वाली धारणाएं हैं । हम विरोधाभासों को पालते जा रहे हैं । उन्हें तोड़ने का कोई प्रयत्न नहीं कर रहे हैं ।
जब हम दर्शन के संदर्भ में वैज्ञानिक युग का और वर्तमान शिक्षा प्रणाली का अवलोकन करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि एक बड़ी त्रुटि रह रही है । क्रोध और क्षोभ को मिटाने की बात हमने छोड़ दी, केवल बाह्य के पीछे भटक गए । उपाध्याय मेघविजय ने एक सुन्दर बात कही है—ज्ञान वायु पर विजय पाता है । दर्शन पित्त पर विजय पाता है । चारित्र कफ का निवारण करता है । शरीर के तीन दोषों—वात, पित्त और कफ को मिटाने वाले हैं ज्ञान, दर्शन और चारित्र । यह बहुत ठीक बात है । आयुर्वेद की दृष्टि से वायु चिन्ता पैदा करता है, पित्त चंचलता और क्रोध उत्पन्न करता है और कफ शोक उत्पन्न करता है । ये तीन दोष तीन प्रकार की मनोवृत्तियां पैदा करते हैं । ___आज ज्ञान पर अधिक बल दिया जा रहा है । सारी दवाइयां वायु-वेग को मिटाने के लिए बन रही हैं । वायु पर विजय प्राप्त करने की बात आ गई, किन्तु दो बच गए—एक क्रोध और दूसरा शोक । आज का आदमी इन दोनों से आक्रान्त है । आज का बच्चा भी इनसे अछूता नहीं है । उसमें क्रोध अधिक है, शोक कम । एक पांच वर्ष का बच्चा मां को पीट रहा था। मैं वहां था । मैंने मां से पूछा-अभी तो बच्चा छोटा है । अभी से पीटने लग गया । मां ने कहा—'महाराज ! अभी तो यह पांच वर्ष का हो गया । जब यह तीन वर्ष का था, तब भी मुझे बहुत पीटता था । छोटा है, समझ नहीं है । बच्चे में क्रोध अधिक होता है ।
आदमी में शोक की भी प्रबलता है | वह प्रायः शोकग्रस्त देखा जाता है । एक शोक मिटता है, दूसरा उभर आता है ।
इन सारी स्थितियों का मूल कारण है—असंतुलन | आदमी का सारा ध्यान वायु पर अटक गया । वह पित्त और कफ के विषय में सोचता ही नहीं । जब तक तीनों में संतुलन स्थापित नहीं होगा, कुछ भी वांछनीय परिणाम नहीं आएगा।
जैन दर्शन के सन्दर्भ में जीवन के उद्देश्य की सुन्दर परिकल्पना यह है कि ज्ञान, दर्शन आ चारित्र का समन्वित विकास हो । ज्ञान के साथ-साथ
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