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१६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
दे सकता है, अंधकार नहीं ।
आज का युग बौद्धिकता का युग है । प्रत्येक साधु-साध्वी बौद्धिक विकास के लिए प्रयत्नशील है । वे नाना भाषाओं और नाना विधाओं के अध्ययन की दिशा में प्रस्थान करने के इच्छुक हैं । यह बहुत अच्छी बात है । किन्तु गृहस्थ समाज की भांति यदि अध्ययन एकांगी रहा, साथ-साथ मूर्च्छा-विलय की साधना नहीं चली, ध्यान और तपस्या नहीं चली, तपस्या का क्रम नहीं चला तो ठीक वही होगा जो आज सामाजिक जीवन में हो रहा है । उस एकांगी विकास से वैसी ही समस्या पैदा हो जाएगी ।
बौद्धिक विकास की भी अपनी कुछ बुराइयां हैं, बीमारियां हैं । बौद्धिक विकास से अहंकार बढ़ता है, पारस्परिकता में अन्तर आता है, तर्क बढ़ता है और मृदुता में कमी आती है । ये अत्यधिक संभव बातें हैं । हमारी यह सावधानी रहे कि हम एकांगी न बनें। हम अपनी सर्वांगीणता को न छोड़ें । अध्ययन के साथ-साथ मूर्च्छा - विलय का प्रयत्न होता रहे ।
मूर्च्छा के विलय का एक बड़ा उपाय है— वीतराग का ध्यान । आज किसी पढ़े-लिखे व्यक्ति से कहा जाए, नमस्कार महामंत्र का जाप करो, माला गिनो; वह सोचेगा, इतना बड़ा विद्वान् हो गया और मैं अब नवकार मंत्र की माला फेरूं । बहुत छोटी बात है । यह सोचना एक बीमारी है । वह यह नहीं जानता कि नवकार मंत्र की माला फेरने का अर्थ है ज्ञान और आचरण में सामंजस्य स्थापित करना, संतुलन साधना । क्या अरिहंत और वीतराग की स्मृति करना छोटी बात है ? जब हम इनकी स्मृति करते हैं, स्मृति में तन्मय होते हैं तो हमारी वीतरागता जागती है, मूर्च्छा कम होती है, मोह-राग-द्वेष कम होता है, प्रियता और अप्रियता का सम्मोहन कम होता है । यह घटित होने पर जीवन की अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं ।
आइंस्टीन महान् वैज्ञानिक था । वह इतना आस्थावान था कि बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उतना आस्थावान नहीं हो सकता । वैज्ञानिक और आत्मापरमात्मा के प्रति आस्थावान - यह एक समस्या है । इतना बड़ा वैज्ञानिक और फिर धार्मिक ! यह कैसे ? यह प्रश्न हमारी ही मूढ़ता के कारण उत्पन्न हुआ है । अपनी विसंगतियों के कारण हमने ऐसे मूल्य स्थापित कर दिए, ऐसे मानदंड स्थापित कर लिये कि यदि वैज्ञानिक धार्मिक होता है तो आश्चर्य
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