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________________ ८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता के अनुसार मन और चित्त में अन्तर होता है, यह मेडिकल सांइस के लिए बहुत काम की बात है। - हम मन के बारे में भी बहुत कम जानते हैं । यह तो जानते हैं कि मन चंचल है । पर मन क्या है, इस बारे में नहीं जानते । चित्त के बारे में और कम जानते हैं । और अन्तर्चित्त के बारे में कुछ नहीं जानते । ये सारे आश्चर्य सामने आते हैं । मैं सोचता हूं कि जीवन के बारे में हमारी जानकारी बहुत अधूरी है । और जब जीवन के बारे में भी हम नहीं जानते तो भला और क्या नयी बात जान सकते हैं ? सारी दुनिया को जानने वाला, सारे तत्त्वों को जानने वाला यदि अपने जीवन के बारे में नहीं जानता तो वह क्या बड़ी उपलब्धि कर सकता है ? आज तक दुनिया में जितनी उपलब्धियां हुई हैं, वे उन्होंने की हैं जिन्होंने अपने बारे में जाना है । हम जिस दुनिया में जीते हैं वह संबंध की दुनिया है । एक के साथ दूसरे का संबंध जुड़ा हुआ है । जब एक को ही नहीं जानते, तो हमारे सारे संबंध गड़बड़ा जाते हैं। - एक विदेशी यात्री घोड़े पर बैठकर खेतों से गुजर रहा था । घोड़े को प्यास लगी । उसे पानी पिलाना था | आसपास में कहीं पानी नहीं था । उसे पानी नहीं मिला । इधर-उधर देखा, कोई कुआं भी नहीं मिला । एक रहट चल रहा था । देखा कि पानी गिर रहा है। वह जैसे ही पानी पिलाने लगा, रहट की खट-खट आवाज से घोड़ा चौंक गया । विदेशी बोला—भाई ! इस आवाज को बंद करो, घोड़े को पानी पिलाना है । भला आदमी था, बात मान ली । रहट को चलाना बन्द कर दिया । आवाज बन्द हुई तो पानी भी बन्द हो गया । अब पानी कहां से आता ? रहट की तो हर डोल भरती है और खाली होती है, इधर की भरती है तो उधर की खाली हो जाती है । उसमें तो एक क्रम चलता है । शब्द बंद तो पानी बंद | घुड़सवार बोला'भले आदमी ! विदेशी हूं, इतना काम तो करो, पानी तो पिला दो, पानी बन्द क्यों किया ? मैंने तो आवाज बंद करने को कहा था, तुमने पानी बंद कर दिया !' वह बोला—'आपकी सद्भावना के लिए धन्यवाद ! मैं भी चाहता हूं कि आपके घोड़े को पानी पिला दूं, किन्तु ये दोनों बातें नहीं हो सकतीं। एक ओर आप कहते है कि आवाज बन्द करो और दूसरी ओर कहते हैं कि Jain Education International For. Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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