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१८८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
तोड़ने की नीति का नाम है- सांप्रदायिकता । संप्रदाय का अर्थ है— गुरुपरंपरा —‘संप्रदायो गुरुक्रमः ।' तर्क का संप्रदाय है, आगम और ज्योतिष का संप्रदाय है । जो एक गुरु-परंपरा के आधार पर चलता है वह है संप्रदाय । उसे समाप्त करना उचित नहीं है । आज यदि कहा जाए, भारत में ज्ञान, विज्ञान या विद्या का जो विकास हुआ है उसे समाप्त कर दिया जाए, नया वाद चलाया जाए तो आदमी 'रामू भेड़िया' बन जाएगा ।
संप्रदाय को समाप्त नहीं, विकसित करना है । गुरु-परंपरा को समाप्त नहीं करना है, उसे आगे बढ़ाना है । समाप्त करना है सांप्रदायिकता को । सांप्रदायिकता का एक अर्थ है— दूसरों को बुरा बताना, दूसरों की निन्दा करना, दूसरों को गिराने का प्रयत्न करना ।
असांप्रदायिकता का अर्थ है— निर्माणात्मक दृष्टिकोण का विकास करना, उसे विस्तार देना ।
जिस संप्रदाय का दृष्टिकोण असांप्रदायिक होता है, रचनात्मक होता है, वही संप्रदाय अणुव्रत आंदोलन जैसा आंदोलन प्रवर्तित कर सकता है । दूसरों द्वारा प्रवर्तित नहीं हो सकता ।
अपने कल्याण के साथ-साथ जिसमें जन-कल्याण की भावना व्याप्त होती है, वह संप्रदाय निश्चित ही तेजस्वी बनता है ।
मैं मानता हूं जिस दिन से आचार्यश्री ने अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया, उस दिन से तेरापंथ और अधिक तेजस्वी बना है । इसमें कुछ लोगों को यह भ्रम हुआ कि आचार्य तुलसी इस बहाने दूसरों को अपने संप्रदाय में मिलाने का प्रयत्न कर रहे हैं । किन्तु धीरे-धीरे यह भ्रम टूट गया । उन्हें यह ज्ञात हो गया कि तेरापंथ के आचार्य का दृष्टिकोण कभी ध्वंसात्मक नहीं रहा है । वह सदा रचनात्मक रहा है, व्यापक और कल्याणकारी रहा है ।
हम चार बातों को स्पष्ट समझ लें-- संप्रदाय, सांप्रदायिकता, असांप्रदायिकता और तेजस्विता । तेजस्विता उसी संप्रदाय की बढ़ती है जो असांप्रदायिक होता है ।
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