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संप्रदाय और धर्म / १८७ गई । शक्ति-प्रदर्शन की दोनों ओर तैयारी हो गई । आचार्यश्री तुलसी ने तत्काल निर्णय लिया और स्वयं एक ओर हटते हुए आदेश दिया कि सब सड़क को छोड़कर एक ओर हट जाएं । निर्णय लेते समय मंत्री मुनि से भी परामर्श नहीं लिया । आदेश सुनते ही कुछेक साधु गरमा गए । श्रावक भी उत्तेजित होने की स्थिति में आ गए | किन्तु तेरापंथ के आचार्य के आदेश की अवहेलना करना सहज सरल बात नहीं थी । सब एक ओर हट गए । दूसरे आचार्य का जुलूस पास से नारे लगाता हुआ गुजर गया ।
तत्कालीन बीकानेर-नरेश गंगासिंहजी के पास यह घटना पहुंची । उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा—आचार्यश्री तुलसी ने छोटी अवस्था में बड़ी समझदारी और प्रौढ़ावस्था की बुद्धि का परिचय दिया । यदि रांगड़ी चौक में दोनों दलों की मुठभेड़, जो सहज थी, हो जाती तो मेरे राज्य की बड़ी बदनामी होती, खून-खच्चर होता और दीर्घकाल के लिए वैर बंध जाता । ... ऐसा क्यों हुआ? इसलिए हुआ कि जिस संघ का दृष्टिकोण रचनात्मक होता है, निर्माणात्मक होता है, वह संघ दूरदर्शी होता है । वह तेजस्वी बनता है, प्रगति और उन्नति करता है ।
आज अन्य समाज वालों को यह आश्चर्य-सा लगता है कि तेरापंथ धर्मसंघ के मुमुक्षुओं में साहित्य-निर्माण की इतनी क्षमता, वक्तृत्व-कला की निपुणता कैसे बढ़ रही है ? वे भी अपने-अपने समुदाय में इसका विकास चाहते हैं, प्रयत्न भी करते हैं । __तेजस्विता के लिए दो बातें जरूरी होती हैं—संगठन और अनुशासन तथा रचनात्मक दृष्टिकोण । तेरापंथ में ये दोनों हैं । हर संप्रदाय इन्हें प्राप्त कर तेजस्वी बन सकता है । तेरापंथ ने सारी शक्ति रचनात्मकता में लगाई, ध्वंसात्मक कार्य में नहीं। शक्ति शक्ति है | वह यदि प्राप्त है तो कहीं-नकहीं लगेगी ही, फिर चाहे निर्माण में लगे या ध्वंस में लगे । मंडन में लगे या खंडन में लगे । जो अपनी शक्ति खंडन में लगाते हैं वे सदा हानि उठाते हैं । दिन-रात वे सोचते रहते हैं, इसको तोड़ना है, उसको बिगाड़ना है, यह करना है, वह करना है । ऐसा करने से उन्हें मिलता कुछ भी नहीं । केवल वे दूसरों का अहित ही करते हैं ।
जो लोग तोड़ने की नीति पर चलते हैं, वे हैं सांप्रदायिक । दूसरों को
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