________________
१८६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
आदमी को ? यह उपयोगी बात नहीं है । ऐसा होना संभव भी नहीं है । यह कोई समस्या का समाधान भी नहीं है । यह समाधान के बदले और नयीनयी समस्याएं खड़ी कर देगा। सर्दी की समस्या, गर्मी की समस्या, आंधी और धूल की समस्या, वर्षा की समस्या – ये सारी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी । घरों को तोड़ने की आवश्यकता नहीं है । संप्रदायों को मिटाने की जरूरत नहीं है | असांप्रदायिकता का अर्थ है-अपने घर में रहते हुए यह सोचना कि दूसरे के घर में भी आकाश है, केवल मेरे घर में ही आकाश नहीं है । आदमी का आग्रह होता है कि वह अपने घर में तो आकाश का अस्तित्व मान लेता है, पर दूसरों के घर में आकश का अस्तित्व नहीं मानता ।
तेरापंथ तेजस्वी बना और इसका एक कारण यह है कि आचार्य भिक्षु ने सृजनात्मक दृष्टिकोण अपनाया और उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने उसका अनुसरण किया । 'मंडनात्मक नीति आगे बढ़ाती है । खंडनात्मक नीति शक्ति को क्षीण कर, आदमी को पीछे ढकेल देती है ।' तेरापंथ की इस नीति ने उसे शक्ति-संचय का अवसर दिया और आज सवा दो सौ वर्षों के इतिहास में उस पर अनेक प्रहार हुए; पर उसने खंडनात्मक नीति का सहारा नहीं लिया । उसने किसी अन्य संप्रदाय के विरोध में या अपने विरोध के उत्तर में आक्षेपात्मक लेख या पुस्तिका नहीं लिखी । जैन समाज में परस्पर विरोध में ऐसी-ऐसी पुस्तकें निकली हैं, जिनका नाम लेने में भी लज्जा का अनुभव होता है। एक-दूसरे पर इतना कीचड़ उछाला गया है कि लज्जा से सिर नीचा हो जाता है । तेरापंथ ने किसी भी जैन- अजैन धर्म-संप्रदाय के विरोध में दो शब्द भी नहीं लिखे । यह उसकी मंडनात्मक नीति का ही प्रभाव है ।
आचार्यश्री तुलसी बाईस वर्ष की छोटी अवस्था में आचार्य बन गए । बीकानेर चातुर्मास हुआ । चातुर्मास की संपन्नता हुई । दूसरे दिन विहार था | वहां एक अन्य संप्रदाय के आचार्य का भी चातुर्मास था । चातुर्मास पूर्ण हुआ । आचार्यश्री तुलसी हजारों की भीड़ के साथ बीकानेर की मुख्य सड़कों से होते हुए विहार कर रहे थे । उधर दूसरे संप्रदाय के आचार्य भी हजारों लोगों के साथ सामने से आ रहे थे । दोनों जुलूसों का ऐसे बिन्दु पर मिलन होने वाला I था, जहां का रास्ता अत्यंत संकीर्ण था । रांगड़ी का प्रसिद्ध चौक। कौन किसको रास्ता दे ? दोनों बड़े संप्रदाय के आचार्य थे । कौन हटे ? स्थिति गंभीर बन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org