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संप्रदाय और धर्म / १८५
समस्याओं का समाधान खोजा था। बड़ा आश्चर्य होता है । राजा भोज और कालिदास के संस्मरण, अकबर और बीरबल के किस्से बहुत प्रसिद्ध हैं । वे बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण हैं। उनसे भी ज्यादा वेधक और बुद्धिमत्तापूर्ण रचनाएं, कहानियां और संस्मरण आचार्य भिक्षु के हैं ।
आचार्य भिक्षु विचक्षण व्यक्ति थे । उनकी प्रज्ञा जागृत थी। एक बार एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु से कहा – अमुक-अमुक संप्रदाय वाले एक-दूसरे को असाधु कहते हैं । एक संप्रदाय वाला कहता है कि उस संप्रदाय वाले असाधु हैं और उस संप्रदाय वाले कहते हैं कि वे असाधु हैं । आप क्या कहते हैं ? आचार्य भिक्षु बोले- दोनों सही हैं, सच्चे हैं । प्रश्न पूछने वाला समझा या नहीं, हम नहीं जानते, किन्तु हम जानते हैं कि आचार्य भिक्षु के कथन का आशय क्या था ।
तेजस्विता का चौथा सूत्र है— अभिव्यक्ति की क्षमता । तेरापंथ की तेजस्विता बढ़ी है, क्योंकि उसमें अभिव्यक्ति की क्षमता है । उसमें अपने विचारों को, अपने सिद्धान्तों को संप्रेषित करने की क्षमता है । आचार्य भिक्षु ने एक कार्य प्रारंभ किया था साहित्य-निर्माण का । आश्चर्य होता है कि उन्हें यह बात कैसे सूझी ? इतने संघर्षों के बावजूद उन्होंने विपुल साहित्य का निर्माण किया । आज के युग में कहा जाता है कि अमुक विचार कितना अच्छा है । इसका मूल्य नहीं, मूल्य इस बात का है कि वह अच्छा विचार कितने लोगों तक पहुंच पाता है। आचार्य भिक्षु ने साहित्य - निर्माण की पहल की । श्री मज्जयाचार्य ने उसमें अत्यधिक वृद्धि की और आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल में इसका और अधिक विकास हुआ । हमारे विचार लोगों तक पहुंचे हैं । लोगों में साहित्य पढ़ने की रुचि बढ़ी है ।
ये चार सूत्र प्रत्येक संप्रदाय को तेजस्वी बनाने के लिए आवश्यक हैं । एक प्रश्न बार-बार दोहराया जाता है कि क्या संप्रदाय संप्रदाय ही रहे या असंप्रदाय बनकर काम करे, संप्रदाय की सीमा को पार कर जाए ? मैं सोचता हूं कि सांप्रदायिकता और संप्रदाय की सीमा दोनों एक नहीं हैं, भिन्नभिन्न बातें हैं । संप्रदाय की सीमा में रहना बुरा नहीं है, रहना ही चाहिए । कल्पना करें कि घर की चहारदीवारी को हटा दिया जाए, दरवाजे को हटा दिया जाए, मुक्त आकाश रहे, तो क्या कोई वहां रह पाएगा ? कैसा लगेगा
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