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________________ मन की शान्ति / ९९ उलझ जाती हैं | मानसिक पागलपन, मानसिक विक्षिप्तता उभरकर सामने आ जाती है । और जब-जब हम अपनी भाव-शुद्धि की धारा से जुड़ते हैं, सब कुछ ठीक हो जाता है । पागलखाने में एक पागल भरती था । सामने घड़ी टंगी हुई थी । कोई भी आदमी पागलखाने में देखने आता तो पूछता कि समय क्या हुआ है ? अमुक समय हुआ । एक से, दूसरे से, तीसरे से पूछा और सबने यही कहा कि घड़ी ठीक चल रही है । उस व्यक्ति ने कहा कि जब घड़ी ठीक चल रही है तो पागलखाने में इसकी क्या जरूरत है । पागलखाने में तो ठीक की जरूरत नहीं है। हमारे जीवन में एक पागलखाना भी चल रहा है । जितनी भाव की अशुद्धि है, वह सब पागलखाना ही तो है । पागल कोई मकान में थोड़े ही बनता है । पागल तो अपने जीवन में बनता है । जिस व्यक्ति का भाव की अशुद्धि के साथ में तार जुड़ गया वही पागल हो गया । पागल और कौन होता है ? जो व्यक्ति एक बात को पकड़ लेता है, और उसे छोड़ नहीं सकता वह पागल हो जाता है । एक रट लग गयी, एक धुन लग गयी, पागल हो गया । जो विचार का तांता तोड़ नहीं पाता वह पागल बन जाता है । जिस व्यक्ति में इस क्षमता का विकास हो जाता है कि कोई अशुद्ध भावधारा आ जाती है तो उससे हटाना जानता है, वह समझदार आदमी होता है । बहुत अधिक अन्तर नहीं है। यह पागलपन की धारा यानी अशद्ध भाव की धारा और यह समझदारी की धारा, दोनों सटी हुई बह रही हैं । अब किस धारा में आदमी कब चला जाए, कहा नहीं जा सकता है। आज के शरीरशास्त्री बतलाते हैं कि हमारे मस्तिष्क में दो ऐसी ग्रन्थियां हैं, एक है हर्ष की और एक है शोक की। दोनों सटी हुई हैं । हर्ष की ग्रन्थि उद्घाटित हो जाए तो हर घटना में व्यक्ति सुख का अनुभव करे । उसे दुःख नहीं होगा | यदि शोक वाली ग्रन्थि खुल जाए तो फिर चाहे जितना ही सुख हो, करोड़पति बन जाए, दुःख का अन्त होने वाला नहीं है । पर खतरा यही है कि एक को खोलते समय दूसरी खुल जाए तो फिर सारा चौपट हो जाए। सुख और दुःख की धाराएं सटी हुई चल रही हैं । थोड़ा-सा पैर इधर से उधर पड़ा, बस खतरा तैयार है । इसी. बिन्दु पर जागरूकता की जरूरत है । आदमी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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