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१०० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
निरंतर जागरूक रहे ।
किसी भी अवसर पर प्रमाद मत करो । सतत जागरूकता रहे । यह जागरूकता का प्रयोग मानसिक शान्ति के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण प्रयोग है | यह सोचा जा सकता है कि जब हमारा मन इतने प्रभावों से प्रभावित है, तब मानसिक शान्ति का हमारे सामने प्रश्न ही नहीं । हम तो निरंतर मानसिक अशान्ति के चक्र में ही चलते रहेंगे । ऐसी बात नहीं है । अनेक प्रभाव आते हैं । किन्तु हमारे पास सुरक्षा के साधन भी विद्यमान हैं । यदि हम उन सुरक्षा के साधनों का उपयोग करे, तो भावों से बचा जा सकता है । वह उपाय हमारे भीतर ही विद्यमान है । वह उपाय है भावशुद्धि । जो व्यक्ति निरंतर भाव को शुद्ध रखता है, उस पर ये आक्रमण नहीं हो सकते और होते भी हैं तो बहुत मंद होते हैं। वह बच जाता है। भावशुद्धि एक शक्तिशाली उपाय है । यदि उसके प्रति हमारी जागरूकता बढ़ जाये तो इन खतरों से बचा जा सकता है । प्रेक्षाध्यान में शरीर - प्रेक्षा का प्रयोग करते हैं । शरीर को देखना कोई बड़ी बात नहीं है । कांच के सामने खड़े होकर कितनी बार देखते होंगे शरीर को ! शरीर के प्रकंपनों का अनुभव किया । यह कौन-सा आध्यात्मिक प्रयोग है । पर शरीर के प्रति जागरूक होना, प्राण-शक्ति के प्रकंपनों का अनुभव करना, रासायनिक परिवर्तनों का अनुभव करना, ये तो मात्र आलंबन हैं । बच्चे को चलाने के लिए, उसकी अंगुली पकड़ना है । हमने सिर्फ एक आलम्बन दिया कि इनके सहारे भीतर में प्रवेश करें। यह कोई बड़ी बात नहीं है । सबसे बड़ी बात यह है कि इन आलम्बनों के साथ चित्त को लगा दें, जिससे कि भावधारा अशुद्ध न बने । प्रिय और अप्रिय भाव न आए, राग और द्वेष का भाव न आए, हिंसा-चोरी का भाव न जागे। उसी के लिए ये प्रयोग हैं। अगर इनको ही सब कुछ मान लेंगे तो और भ्रान्ति पनप जाएगी । आलम्बनों का अपना उपयोग है । इनके बिना और प्रक्रिया के बिना कहीं पहुंचा ही नहीं जा सकता। हर कोई आदमी सीधा वीतराग नहीं बन जाता । बहुत कठिन बात है वीतराग बनना । प्रत्येक वीतराग को एक निश्चित प्रणाली से गुजरना होगा। जब उस प्रणाली का अंतिम बिन्दु आता है तो व्यक्ति वीतराग बन जाता है ।
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