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९८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
कभी ओढ़ने का है । यह बिछाने का थोड़े ही है ! इसको तो आप संभालकर रखें । रामकृष्ण ने कहा— संभालकर अपने भगवान् को, अपनी मां को रखूं, I या इस दुशाले को रखूं ? एक को ही संभालकर रख सकता हूं। दो को नहीं रख सकता । तेरे लिए इसका कोई मूल्य हो सकता है, मेरे लिए इसका मूल्य नहीं है। मेरे लिए तो मेरी मां ही मूल्यवान है । उन्होंने सोचा, यह ऐसे नहीं समझेगा । पास में अग्नि जल रही थी । दुशाले को अग्नि में डाल दिया । दुशाला जल गया । स्वामीजी ने कहा – तुमने कहा था कि मेरा दुशाला बहुत मूल्यवान है । कहां है यह मूल्यवान ? अग्नि ने तो इसे जला दिया । आधा दुशाला जल गया । क्या मूल्य रहा ?
अपना-अपना मूल्य होता है । जो व्यक्ति जहां तक पहुंचा है, उसने उतना ही मूल्य समझा है । समाज के सारे मूल्य सामाजिक चेतना के आधार पर प्रतिष्ठापित होते हैं। लोग कहते हैं, हमारे समाज में सत्ता का बड़ा मूल्य है । धन का बड़ा मूल्य है । मैं कभी-कभी सोचता हूं कि यह आक्षेप क्यों होना चाहिए। समाज में सत्ता का, धन का मूल्य नहीं होगा तो किसका मूल्य होगा । जो समाज सत्ता और धन के आधार पर चल रहा है, वहां यदि सत्ता और धन का मूल्य नहीं होगा तो किसका होगा ? यदि सामाजिक भूमिका में चरित्र का और अध्यात्म का मूल्य हो जाए और अध्यात्म की भूमिका में सत्ता और सपंदा का मूल्य हो जाए तो जरूर आक्षेप जैसी बात है। जो जिस भूमिका पर जी रहा है, वह वैसे ही मूल्यों की प्रतिष्ठा करेगा ।
अध्यात्म के आचार्यों ने मनुष्य के भीतर की गहराइयों में जाकर झांका, उस अनन्त चतुष्टयी में कुछ डुबकियां लेकर। जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया और मनुष्य के व्यक्तित्व का चित्र उभारा यदि वह हमारे सामने होता तो शायद मन की शान्ति का प्रश्न, शान्ति की समस्या, जटिल नहीं होती । उन्होंने व्यक्ति को समझा, उस आलोक में देखा और परखा कि भावशुद्धि के बिना मन की शान्ति का प्रश्न कभी समाहित नहीं हो सकता । हमारे विकास का, जीवन के विकास का सबसे बड़ा आधार है भावशुद्धि | एक धारा हमारे भीतर हैं भाव- अशुद्धि की और दूसरी धारा प्रवहमान है भाव-शुद्धि की । दोनों धाराएं निरंतर प्रवहमान हैं हमारे व्यक्तित्व में । जब-जब हम भाव की अशुद्धि की धारा से जुड़ते हैं मन की समस्याएं
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