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मन की शान्ति / ९७
ने अज्ञात पर भी बहुत अनुसंधान किया है । उन्होंने अपनी अन्तःदृष्टि और अन्तःप्रेरणा से अज्ञात को समझने का बहुत बड़ा प्रयत्न किया है । अध्यात्म का यह बिन्दु हमें उपलब्ध है । आज से नहीं, किसी वैज्ञानिक की पुस्तक से नहीं, किन्तु हजारों-हजारों वर्ष पहले उन घोषणाओं से हम परिचित हैं कि प्रत्येक प्राणी में, न केवल मनुष्य में, किन्तु प्रत्येक प्राणी में अनन्त शक्ति विद्यमान है | अनन्त चतुष्टयी जैन दर्शन में बहुत प्रसिद्ध है । अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द यह अनन्त चतुष्टयी है । वैदिक साहित्य में सत्, चित् और आनन्द बहुत प्रसिद्ध है ।
हमारे शरीर में, बाहर नहीं, हमारे भीतर यह अनन्त चतुष्टयी है । भीतर इतने बड़े महासागर लहरा रहे हैं, जिनकी आज की भूमि पर मिलने वाले किसी भी सागर से तुलना नहीं की जा सकती । उन सागरों के सामने, ये हमारे सागर, चाहे हिन्द महासागर हो, चाहे अटलांटिक हो, कोई भी हो, बहुत छोटे हैं, नदी-नालों जैसे हैं । कोई भी अनन्त नहीं है, सान्त है, समीम है । किन्तु हमारे भीतर तो चार अनन्त महासागर, जिनकी कोई सीमा नहीं, जिनका कोई आर-पार नहीं, लहरा रहे हैं। उनकी उत्ताल उर्मियां उछल रही हैं । किन्तु इस अनन्त चतुष्टयी से हम अनजान हैं । सिद्धान्त रूप में जानते हैं कि हमारे भीतर चार अनन्त हैं । किन्तु उनका साक्षात्कार कैसे हो ? उनके साथ संपर्क स्थापित कैसे हो? उस प्रक्रिया के हम जानकार नहीं हैं । जब आदमी अपनी शक्ति से अपरिचित है तो वह अपने आपको कैसे पहचान सकता है । कैसे अपने आपको मूल्य दे सकता है और कैसे दूसरे को मूल्य दे सकता है ?
रामकृष्ण परमहंस के पास एक बड़ा सेठ आया । बड़ा सेठ था, इसलिए अहंकारी भी होना चाहिए | बड़ा सेठ हो और अहंकारी न हो तो यह दुनिया । का नौवां-दसवां आश्चर्य हो जाएगा। यह हो नहीं सकता | होना ही चाहिए । । सेठ अहंकारी और लोभी था । आया और अपने अहंकार की पुष्टि के लिए - एक बहुत कीमती दुशाला भेट किया । उन्होंने स्वीकार कर लिया । साधु के 1 लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। बढ़िया हो, घटिया हो, उन्होंने स्वीकार कर लिया।
पांच-सात दिन बाद सेठ फिर आया तो देखा, दुशाला तो नीचे बिछा हुआ है । सेठ बहुत कसमसाया । उसे बहुत बुरा लगा | आखिर रहा नहीं गया । वह पास में जाकर बोला-- गुरुदेव ! बहुत कीमती दुशाला है । यह कभी
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