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९६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
नहीं है, सच है । हमारा मन काल से प्रभावित होता है, यह भी सचाई है। हमारा मन भाव से यानी अवस्था विशेष से प्रभावित होता है, यह भी सचाई है । वह शिक्षा से प्रभावित होता है, यह भी सचाई है । हमारा मन सामाजिक वातावरण से प्रभावित होता है यह भी सचाई है । किन्तु ये सारी सचाइयां एकांगी हैं । पूर्ण सत्य एक भी नहीं हैं । यदि हम पूर्ण सत्य के आधार पर एक बात को पकड़कर बैठ जाएं तो बहुत बड़ी समस्या पैदा हो सकती है। हमें समाधान नहीं मिल सकता । हमें अपने सत्य को, सापेक्ष-सत्य को, सापेक्षसत्य से समझना है, और उसका योग कर कोई निष्कर्ष निकालना है ।
व्यक्ति समाज का हिस्सा है, यह बात ठीक है। किन्त व्यक्ति की अपनी वैयक्तिकता भी है । वैयक्तिकता को भी कभी समाप्त नहीं किया जा सकता । यदि सामाजिकता को समाप्त नहीं किया जा सकता तो वैयक्तिकता को भी समाप्त नहीं किया जा सकता । इन दोनों सचाइयों को साथ लेकर चलना पड़ेगा। __व्यक्ति की अपनी विशेषताएं होती हैं और यदि वे विशेषताएं न हों तो इन रोग के कीटाणुओं का इतना भयंकर आक्रमण हो सकता है कि कोई बच ही नहीं सकता । किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी अवरोधक शक्ति होती है और हर व्यक्ति अपनी क्षमता और शक्ति के आधार पर कीटाणुओं से लड़ता है, अपनी शक्ति का उपयोग करता है ।
व्यक्तिगत विशेषताओं पर भी हमें विचार करना होगा । एक ओर हम वातावरण से, परिस्थितियों से, हेतुओं से, निमित्तों से प्राप्त होने वाली समस्याओं पर विचार करें तो दूसरी ओर व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर भी विचार करें। यहीं अध्यात्म का और इस भौतिक विज्ञान का एक केन्द्र बिन्दु बनता है। हम व्यक्ति के आन्तरिक स्रोतों पर विचार करें । एक बहुत सुन्दर पुस्तक निकली है— Man Unknown | उसमें वैज्ञानिक दृष्टि से इतना विश्लेषण किया गया है कि 'मनुष्य' अभी तक अज्ञात है। मनुष्य का थोड़ासा हिस्सा, उसके मस्तिष्क का पांच-सात प्रतिशत हिस्सा ही ज्ञात हुआ है। नब्बे प्रतिशत से अधिक हिस्सा अज्ञात ही है । ज्ञात बहुत छोटा-सा बिन्दु है । किन्तु अज्ञात तो पूरा-का-पूरा समुद्र ही है । ज्ञात के आधार पर इतने बड़े अज्ञात को अस्वीकार करना कैसे संभव होगा ? अध्यात्म के आचार्यों
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