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व्यक्ति और समाज | १७१
व्यक्ति की एक परिभाषा है— संवेदना | संवेदना का नाम है व्यक्ति । संवेदन वैयक्तिक होता है, कभी सामूहिक नहीं होता । कुछ बातें नितान्त वैयक्तिक होती हैं । प्रत्येक घटना का संवेदन वैयक्तिक होता है । अपना सुख होता है, अपना दुःख होता है। सुख-दुःख का संवेदन वैयक्तिक होता है । वह सुख-दुःख का संवेदन दूसरों में प्रसरणशील होता है, पर वह संवेदन होता है नितान्त वैयक्तिक । संवेदन व्यक्ति की सीमा है और प्रसरणशीलता समाज की सीमा है | संवेदन समूचे समाज में भी फैलता है । कोई घटना किसी देश में घटती है, पर वह अनेक देशों में फैल जाती है । तो देश और काल की सीमा में जैसे घटना का विस्तार होता है, वैसे ही संवेदन का विस्तार हो सकता है, पर संवेदन का मूल बिन्दु है व्यक्ति ।
संवेदन के साथ दो बातें और जुड़ती हैं। एक है सहानुभूति और दूसरी है सहयोग | ये सामाजिक तत्त्व बन जाते हैं। सहानुभूति और सहयोग वैयक्तिक नहीं हो सकता । ये दोनों समाज की सीमा में आ जाते हैं । संवेदन, सहानुभूति और सहयोग — ये तीन तत्त्व व्यक्ति और समाज की सही व्याख्या प्रस्तुत करते हैं । हम सीमा का कभी अतिक्रमण नहीं कर सकते । हमारा सीमा-बोध बहुत स्पष्ट है । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी सीमा है | उसे अपनी सीमा का अवबोध होना ही चाहिए । यह शरीर हमारी सीमा है । हम कितना ही प्रयत्न करें, समाज की कितनी ही अवधारणा करें, पर इस सीमा का अतिक्रमण नहीं किया जा सकता । यह स्वभाविक सीमा है । न शरीर की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है और न संवेदन की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है। न ज्ञान की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है और न बोध की सीमा का अतिक्रमण किया जा सकता है। कुछ बातें नितान्त वैयक्तिक होती हैं । वे व्यक्ति के व्यक्तित्व को बनाए रखती हैं | कुछ बातें निनान्त सामाजिक होती हैं जो समाज के अस्तित्व को धारण करती हैं । कुछ बातें सर्व सामान्य होती हैं, जो व्यक्ति और समाज दोनों से संबंध रखती हैं । सहानुभूति और सहयोग - ये दो तत्त्व उभयमुखी हैं । ये व्यक्ति और समाज में से निकलने वाली ऐसी धारणाएं हैं जिनसे सब प्रभावित होते हैं । इनसे व्यक्ति भी प्रभावित होता है और समाज भी प्रभावित होता है ।
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