________________
व्यक्ति और समाज
दो जगत् हैं। एक है परोक्ष जगत् और दूसरा है प्रत्यक्ष जगत् । प्रत्यक्ष जगत् में जो है वह अपूर्ण है । हमने पूर्णता की कल्पना परोक्ष जगत् में की है । इस दृश्य जगत् में एक भी तत्त्व ऐसा उपलब्ध नहीं है, जिसे हम पूर्ण कह सकें । इस अपूर्णता ने सापेक्षता के सिद्धान्त को जन्म दिया । हम निरपेक्ष होकर कुछ भी नहीं सोच सकते और कुछ भी नहीं कर सकते । प्रत्येक चिन्तन और क्रिया के साथ अपेक्षा जुड़ी हुई है । गति सापेक्ष होती है । एक पैर आगे बढ़ता है तो दूसरा पैर पीछे हट जाता है । दूसरा पैर आगे बढ़ता है तो एक पैर पीछे हट जाता है । गति सापेक्ष होती है । मंथन की क्रिया भी सापेक्ष होती है । प्रत्येक वस्तु दूसरी वस्तु के साथ जुड़ी हुई होती है । इसीलिए कहा गया है, एक के साथ सब और सब के साथ एक । इस अपूर्णता ने ही समाज की अवधारणा उत्पन्न की और समाज निर्मित हुआ । व्यक्ति और समाज को हम यदि दूसरी भाषा में प्रस्तुत करें तो कहना होगा - अपूर्णता से पूर्णता की ओर प्रस्थान करना । व्यक्ति अपूर्ण है । वह सापेक्षता के द्वारा पूर्णता को उपलब्ध करना चाहता है । एक व्यक्ति के जीवन में हजारों-हजारों अपेक्षाएं हैं । वह कभी उन्हें पूरा नहीं कर सकता । उसने विकल्प ढूंढ़ा | उसने सोचा, समाज बना लें तो सब बातें पूरी होंगी । व्यक्ति को कपड़ा चाहिए, अनाज चाहिए, शृंगार की सामग्री चाहिए, मकान चाहिए । न जाने कितने उपकरण चाहिए। अकेला व्यक्ति इन सबका निर्माण नहीं कर सकता । किन्तु समाज बना । हजारों शिल्प, हजारों काम बन गए। हजारों काम करने वाले हो गए । कृति है, संपूर्ति है, विनिमय है, वितरण है और इस प्रकार व्यक्ति की हजारों-हजारों अपेक्षाएं पूरी हो जाती हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org