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१७२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
प्रश्न आता है कि हम व्यक्ति हैं या समाज ? एकांगी भाषा में इसका कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता । यदि हम एकान्ततः यह कहें कि हम व्यक्ति हैं तो यह गलत उत्तर होगा । यदि हम कहें कि हम समाज हैं, तो वह भी गलत उत्तर होगा । इसका उत्तर सापेक्ष ही हो सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सीमा में व्यक्ति है और सामाजिक संपर्कों में वह समाज है, सामाजिक है । कोई भी व्यक्ति सामाजिक संपर्कों से कटकर जी नहीं सकता। मछली पानी में जीती है। मछली का अपना अस्तित्व है । वह व्यक्ति है, पर वह पानी से अलग होकर जी नहीं सकती। मछली के लिए पानी की अनिवार्यता है । वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन-निर्वाह के लिए समाज की अनिवार्यता है । सामाजिक संबंधों के आधार पर जो निष्कर्ष निकलते हैं, वे चिन्तनीय हैं | समाज व्यवस्था मांगता है । व्यक्ति के लिए न भाषा की जरूरत है और न व्यवस्था की जरूरत है। जहां एक से दो हुए, व्यक्ति से समाज बना, वहां व्यवस्था का प्रश्न सामने आता है। अकेला व्यक्ति जहां चाहे वहां बैठ सकता है। जहां दो होंगे, वहां बैठने की व्यवस्था करनी होगी। समाज व्यवस्था प्रधान होता है और व्यक्ति ज्ञान या संवेदन प्रधान होता है ।
व्यक्ति की सापेक्ष मीमांसा के बाद हम इस पहलू पर विचार करें कि क्या ध्यान वैयक्तिक नहीं है ? यदि यह वैयक्तिक है तो समाज को इससे क्या लाभ हो सकता है ! समाज में ध्यान की प्रतिष्ठा करने के लिए इतना प्रयत्न क्यों किया जा रहा है ! इतने अध्यापकों को ध्यान सिखाना क्या जरूरी है ? इतने विद्यार्थियों को ध्यान का प्रशिक्षण देना क्यों आवश्यक है ? ध्यान की साधना नितान्त वैयक्तिक है जिसकी रुचि हो वह करे, जिसकी रुचि न हो वह न करे । इसे प्रायोगिक रूप क्यों दिया जाए ? यह चिन्तन अस्वाभाविक नहीं है । किन्तु हमें यह सोचना चाहिए कि व्यक्ति समाज से जुड़ा हुआ है । समाज व्यक्ति से प्रभावित होता है । हम यथार्थ के धरातल पर जाकर देखें । समाज का पूरा संचालन व्यक्ति करता है । शक्ति है समाज में, पर जहां प्रक्रिया का प्रश्न है वहां यह मानना ही होगा कि संचालन या नेतृत्व व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा ही होता है । प्रत्यक्षतः समाज का संचालन एकतंत्र में एक व्यक्ति और जनतंत्र में कुछ व्यक्ति करते हैं । परोक्षतः वह संचालन समाज द्वारा भले ही निर्दिष्ट हो, किन्तु प्रत्यक्षतः उस संचालन में
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