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१९० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता है, न भ्रष्टाचार कर सकता है और न ठगाई कर सकता है । ऐसा आध्यात्मिक व्यक्ति ही मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा कर सकता है । किन्तु यह बात बहुत स्पष्ट है कि सभी धार्मिक व्यक्ति इतनी गहरी आत्मानुभूति लिये हुए नहीं होते । बहुत सारे धार्मिक व्यक्ति धर्म के दूसरे या तीसरे आयाम में जीने वाले होते हैं । धर्म के दूसरे आयाम-नैतिकता में जीने वाले भी कम होते हैं । बहुत सारे धार्मिक व्यक्ति तो धर्म के तीसरे आयाम में जीते हैं । वे उपासना-प्रधान होते हैं । वे मानते हैं ईश्वर की पूजा करो, माला जपो, इष्ट का स्मरण करो, सब कुछ ठीक हो जायेगा, पाप सारे समाप्त हो जाएंगे । भगवान् क्षमा कर देगा । इस आशा के आधार पर वे उपासना में लगे रहते हैं और उसे आगे बढ़ाते रहते हैं । मैं यह कहना नहीं चाहता कि उपासना व्यर्थ है । उपासना बहुत आवश्यक है। किन्तु उसके सही स्वरूप को समझने का प्रयत्न करें । एकांगी धारणा ने उसके स्वरूप को भी विपरीत बना डाला है । आदमी मानता है, दिन भर जो बुराई होती है, उसके पाप से छूटने का सरलतम रास्ता है उपासना । दिन भर कुछ भी करो, सुबह-शाम भगवान के समक्ष प्रार्थना कर लो, माला जप लो बस, सारे पाप समाप्त हो जाएंगे । इस दृष्टि से उपासना बुराई का उन्मूलन करने वाली नहीं रही, वह उस बुराई को समर्थन देने वाली या प्रश्रय देने वाली बन गई । यदि पेट का कोई रोगी डॉक्टर के पास जाकर कहे कि आप मुझे ऐसी दवा दें, जिससे जो कुछ खाऊ पच जाए, हजम हो जाए । अब यदि वह दवा लेता है तो वह दवा उसकी लोलुपता को बढ़ाने वाली ही मानी जायेगी । वह लोलुपता को मिटाने वाली नहीं, उसको प्रोत्साहन देने वाली होगी । वह खाने को रोक नहीं सकता । अतः भोजन को पचाने में असमर्थ है तो दवा उसे पचाये । उपासना का भी यही रूप बन गया है | उपासना का शुद्ध स्वरूप यह है कि आज यदि बुरा काम हो गया है तो वह व्यक्ति भगवान् की साक्षी से कहता है- 'भगवान् ! मैं संकल्प करता हूं कि यह बुराई पुनः कल नहीं करूंगा । 'इयाणिं नो जमहं पुव्बमकासी पमाएणं-अब मैं वैसा आचरण कभी नहीं करूंगा जो मैंने प्रमादवश कर लिया था ।) यदि उपासना का यह स्वर हो तो उपासना का वास्तविक मूल्य हो सकता है । आज यह नहीं रहा । आदमी भगवान् के सामने भूल स्वीकार कर लेता है, किन्तु फिर उसी भूल को करने में नहीं हिचकिचाता ।
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