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________________ १६२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता जनक है । हर प्रकार के शोक के पीछे स्नेह का प्रवाह रहता है। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति लोभ से भाषित है, रस से भाषित है और स्नेह से भाषित है । इस स्थिति में अप्पा कत्ता—विकत्ता य—यह बात कैसे समझ में आ सकती है। आत्म-कर्तृत्व की समस्या क्यों है ? कर्तृत्व के विज क्या हैं ? आत्म-कर्तृत्व की बात को एक बार छोड़ दें । हम पुरुषार्थ को प्रज्वलित करने की बात सोचें । आज प्रत्येक क्षेत्र में बाधाओं और विघ्नों को कोई कमी नहीं है । हजारों-हजारों विघ्न हैं । हजारों-हजारों बाधाएं हैं। उनका पार हम कैसे पाएं ? उन पर हम अपना प्रभूत्व कैसे जमाएं ? । अध्यात्म के आचार्यों ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा— 'उपादान को प्रबल करो, निमित्त को क्षीण करो ।' दो दृष्टियां हैं । एक है उपादान को मानने वाली दृष्टि और दूसरी है निमित्त को मानने वाली दृष्टि, परिस्थिति या वातावरण को मानने वाली दृष्टि । जब तक हमारी दृष्टि 'पर' पर टिकी रहेगी, तब तक उपादान कमजोर होता चला जाएगा । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में दो बातें हैं—एक है दवा और दूसरी है रोग-निरोधात्मक शक्ति । दवा तब तक ही काम करती है जब तक शरीर में रोग-निरोधात्मक शक्ति है । जब यह शक्ति कमजोर हो जाती है तब दवा कुछ भी असर नहीं कर पाती । जब उपादान शक्ति जागृति होती है तब 'अप्पा कत्ता—'विकत्ता य'यह सिद्धान्त उदित होता है । उपादान की दृष्टि निश्चय-नय की दृष्टि है | आचार्य भिक्षु ने इस विषय पर बहुत लिखा । वे भी निश्चय दृष्टि पर चलने वाले थे । अध्यात्म पथ का प्रत्येक पथिक निश्चय नय पर चलेगा । फिर चाहे आचार्य कुन्दकुन्द हों, आचार्य हरिभद्र हों या आचार्य भिक्षु हों । कोई भी हों निश्चय नय अध्यात्म की दृष्टि है । उसका प्रतिपाद्य है कि आत्मा अपने भावों का कर्ता है । इस स्थिति में उपादान प्रबल होता है और वह निमित्तो पर प्रशासन करने लग जाता है | निमित्त पर प्रशासन करने का एकमात्र उपाय है उपादान को जागृत करना । उपादान को प्रबल बनाओ, निमित्त कमजोर हो जाएंगे । निमित्तों को प्रबल बनाओ, उपादान कमजोर हो जाएगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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