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________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता / १६१ प्रत्येक व्यक्ति दूसरों पर आरोप करता है । हजार आदमी का सर्वेक्षण करने पर भी यही तथ्य सामने आयेगा कि सब 'पर' पर आरोप करते हैं । सब यही सोचते हैं, उसने मुझे गिरा दिया । उसने मेरे काम में बाधा डाल दी । उसने यह किया । उसने वह किया । कोई भी आदमी यह नहीं सोचता कि मेरे अपने प्रमाद के कारण यह घटित हुआ है, यह बाधा आयी है । आचार्य भिक्षु ने लिखा है, आदमी रसलोलुप होकर खूब खा जाता है। जीभ वश में नहीं रहती | बीमार हो जाता है । वैद्य के पूछने पर कहता हैमौसम ठीक नहीं है । आज वैसा हो गया । आज ऐसा हो गया । वह यह कभी नहीं कहेगा कि मेरी लोलुपता ने इस बीमारी को निमंत्रण दिया है । मैंने डटकर खा लिया, ऐसा कभी नहीं कहेगा । एक मार्मिक श्लोक है । उसमें अनेक सत्य प्रकट हुए हैं । कहा है-—- व्याधयः । लोभमूलानि पापानि, रसमूलाहि स्नेहमूला यतः शोकाः त्रीणि त्यक्त्वा सुखी भवेत ॥ प्रश्न हुआ कि पाप का मूल क्या है ? पाप क्यों होता है ? उत्तर में कहा गया कि पाप का मूल है लोभ । हमारे जीवन केन्द्र में लोभ बैठा है और सब पाप परिधि में हैं । केन्द्र में है लोभ और शेष सब दोष या पाप उसकी परिक्रमा करते हैं । जब सब पाप नष्ट हो जाते हैं तब लोभ समाप्त होता है । जैन दर्शन के अनुसार कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रथम तीन कषाय नौवें गुणस्थान तक समाप्त हो जाते हैं और लोभ दसवें गुणस्थान में समाप्त होता है । लोभ केन्द्र में है । वह सारे पाप कराता है । यही सब पापों की जड़ है । एक दृष्टि से कहा जा सकता है कि राग सब पापों की जड़ है । लोभ उसकी प्रतिक्रिया है । वह मूल पाप नहीं है। मूल पाप है राग । व्याधियों का मूल है रसलोलुपता । इसीलिए कहा गया 'रसमूलाहि व्याधयः' | खाने का असंयम, लोलुपता बीमारी पैदा करती है । अनेक बीमारियों का यही एकमात्र कारण है । बहाने अनेक बनाये जा सकते हैं, परन्तु खाने के बारे में सम्यक् ज्ञान नहीं होता, असंयम बरता जाता है, तब बीमारी पैदा होती है । 1 शोक का मूल है स्नेह 'स्नेहः मूलाः यतः शोकाः ।' शोक करना नहीं पड़ता, वह होता है क्योंकि भीतर में स्नेह काम कर रहा है । स्नेह शोक का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
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