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१६० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
है
कारण दो प्रकार के होते हैं— उपादान और निमित्त । उपादान होता मूल कारण और निमित्त होता है बाहरी कारण । आचार्य कुन्दकुन्द ने इस पर बहुत विचार किया । उन्होंने कहा - आत्मा अपने भावों का कर्त्ता है । वह परभावों का कर्त्ता नहीं हो सकता । वह सुख - दुःख का कर्त्ता नहीं हो सकता | सुख-दुःख स्व-भाव नहीं, पर भाव है। वह तो हमारा संवेदन है । उसका कर्त्ता आत्मा नहीं हो सकता ।
आज का आदमी 'पर' के आधार पर चलता है। यह सबसे बड़ी समस्या है । पत्थर से ठोकर खाकर आदमी सारा दोष पत्थर पर आरोपित कर देता है ।
दो मित्र भोजन कर रहे थे। लड़का भी साथ ही था । रसोई से बर्तन गिरने की आवाज आयी। लड़के ने कहा- 'मेरी मां के हाथ से कोई बर्तन गिर गया है ।' मित्र ने पूछा- यहां से रसोईघर दिखाई नहीं देता, फिर तुम्हें कैसे पता लगा कि मां के हाथ से बर्तन गिरा है ? तुम्हारी पत्नी के हाथ से भी बर्तन गिर सकता है । वह भी तो रसोईघर में ही होगी ? लड़का बोलानहीं, मैं जानता हूं कि अभी जो बर्तन गिरा है; वह मेरी मां के हाथ से गिरा है क्योंकि यदि मेरी पत्नी के हाथ से बर्तन गिरा होता तो बर्तन गिरने की झंकार के साथ मां की टंकार भी होती। किंतु केवल झंकार ही सुनाई दिया, इसलिए निश्चित है कि बर्तन मां के हाथ से ही गिरा है। दूसरे के हाथ से गिरता तो झंकार और टंकार दोनों होते ।
आदमी 'पर' को देखता है। वह दोषों का आरोपण दूसरों पर करता है । वह अपना निरीक्षण कभी नहीं करता । वह सोचता है, उसने मेरा यह कर दिया, वह कर दिया। सारा आरोपण दूसरों पर करता है । एक संस्कृत कवि ने बहुत मार्मिक बात कही है, किन्तु उसका प्रयोग नहीं हो रहा है । उसने लिखा
'सुखस्य दुखस्य न कोऽपि दाता । परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।'
'सुख-दुख देखने वाला कोई नहीं है । वह मानना कि सुख और दुःख दूसरा कोई देता है, वह कुबुद्धि है । आज प्रयोग इस कुबुद्धि का ही हो रहा है ।
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