SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता / १५९ भोक्ता होता है । यह द्रव्य की दृष्टि है । किन्तु पर्याय की दृष्टि से यह स्पष्ट है कि करने वाला तो अज्ञानी था, भोगने वाला ज्ञानी है । कुछेक व्यक्ति कहते हैं कि अज्ञान अवस्था में किया हुआ पाप नहीं होता । पाप हो या न हो, पर उसका परिणाम तो भोगना ही पड़ता है । जहर चाहे ज्ञात अवस्था में पीओ या अज्ञात अवस्था में पीओ, उसका फल भोगना ही पड़ेगा। केवल द्रव्यदृष्टि को ही न पकड़ें कि 'मैं ही मेरे भाग्य का विधाता हूं।' नयदृष्टि को साथ रखना होगा | इसके बिना कठिनाइयों को पार नहीं किया जा सकता। 'ठाणं' सूत्र में दो अवस्थाओं का उल्लेख है—भाविए, अभाविएभावित और अभावित | एक है भावित अवस्था । व्यक्ति अनेक प्रभावों के बीच जी रहा है । कितने प्रभाव ? एक साध्वी का उदाहरण लें । सबसे पहले उस पर है आचार्य का प्रभाव, फिर साध्वी प्रमुखा का प्रभाव, फिर अग्रगामी साध्वी का प्रभाव और फिर सहभागी साध्वियों का प्रभाव । इतना ही नहीं, फिर देश, काल, भाव और वातावरण का प्रभाव, परिस्थिति का प्रभाव । इन सब बाह्य प्रभावों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रभाव हैं । शरीर का प्रभाव, शरीर के रसायनों के प्रभाव, शरीर की विद्युत का प्रभाव और सबसे बड़ा प्रभाव है--सौरमंडल का प्रभाव । इस प्रकार प्रभावों को गिनते चले जाओ, बहुत लम्बी तालिका बन जाएगी। इन प्रभावों के अतिरिक्त है चौमासे के क्षेत्र का प्रभाव, व्याख्यान में उपस्थित परिषद् का प्रभाव, भिक्षा देने वालों का प्रभाव, अन्न-पानी का प्रभाव, श्रद्धा-पूजा करने वालों का प्रभाव | कितने प्रभाव ! इतने प्रभावों के बीच जीवन यापन करना पड़ता है एक साध्वी को । यह बात प्रत्येक साधु या व्यक्ति के लिए कही जा सकती है; अनेक-अनेक प्रभाव हैं । इन प्रभावों के बीच जीने वाला पूर्ण स्वतंत्र कैसे हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता । यह भी सच है कि इन प्रभावों को समाप्त नहीं किया जा सकता । बड़ी समस्या है | इस संदर्भ में हम अपने परतंत्र व्यक्तित्व को समझें कि हम कितने परतंत्र हैं ? ___ 'हम स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं'—इसका रहस्य क्या हो सकता है ? इस रहस्य को समझने के लिए हमें भाग्य को समझना होगा, हमें नयदृष्टि से चलना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy