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१५८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
हाथ लग जाएगी । यदि नयदृष्टि को छोड़कर किसी वचन को समझना चाहोगे तो अहंकार बढ़ेगा या हीन भावना बढ़ेगी। या तो आग्रह पनपेगा या मिथ्या दृष्टिकोण पनपेगा । इन दोनों से बचने के लिए अनेकान्त दृष्टि का सहारा लेना आवश्यक होता है ।
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तर्कशास्त्र में कर्ता और भोक्ता की चर्चा है । जो कर्त्ता है वही भोक्ता है । कृतित्व और भोक्तृत्व — ये दोनों एक में ही होती हैं । यह सिद्धान्त बन गया— जो कर्त्ता, वही भोक्ता । पर अनेकान्तदृष्टि से विचार करने पर नय का सहारा लेना पड़ेगा । आदमी ने इस जन्म में एक कर्म किया। यहां से मरा और दूसरी योनि में चला गया । वह वहां अपने पूर्व कर्म का फल भोगता है। यहां उसने अच्छा कर्म किया था तो देव बनकर उसका अच्छा फल भोग रहा है । यहां उसने बुरा कर्म किया था तो नारक या पशु बनकर उसका बुरा फल भोग रहा है । लगता है करने वाला कोई दूसरा था और भोगने वाला कोई दूसरा है । यहां एक समस्या उपस्थित हो जाती है। इसे समाहित करने के लिए नयदृष्टि से विचार करना होगा ।
दो दृष्टियां हैं। एक है पर्याय या अवस्थान्तर की दृष्टि और एक है द्रव्य की दृष्टि — मूलदृष्टि । पर्याय की दृष्टि से विचार करने पर यह फलित होता है कि जो कर्त्ता होता है वह भोक्ता नहीं होता है । कर्त्ता दूसरा होता है और भोक्ता कोई दूसरा होता है, दोनों एक नहीं होते । द्रव्य की दृष्टि से विचार करने पर यह फलित होता है कि कर्त्ता और भोक्ता — दोनों एक हैं। जो कर्ता है वही भोक्ता है। जो अच्छा-बुरा कार्य करता है वही उनके अच्छे-बुरे फल भोगता है। करने वाला कोई और, भोगने वाला कोई औरऐसा नहीं होता ।
छोटा बच्चा था । सामने जहरीली गोली पड़ी थी। उसने खा ली । बचपन बीता । युवावस्था में उस जहर का तीव्र असर हुआ और वह आदमी बीमार हो गया । जहर तो खाया था बचपन में, अज्ञान अवस्था में और फल भुगत रहा है युवावस्था में | करने वाला तो अज्ञानी था, भोगने वाला ज्ञानी है । ऐसा होता है । आदमी बुरा काम कर लेता है अज्ञान अवस्था में किन्तु उसका परिणाम ज्ञान की अवस्था में भुगतता है ।
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हम एकान्त की दृष्टि से नहीं चल सकते कि जो कर्त्ता होता है वही
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