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मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
दो समस्याएं सामने हैं । एक ओर है अहंकार की समस्या और दूसरी ओर है हीन भावना की समस्या । दोनों ओर समस्याएं हैं। कुछ लोगों ने इस सिद्धान्त का प्रदिपादन किया-मैं ही हूं अपने भाग्य का निर्माता | यह अहंकार को बढ़ाने का सिद्धान्त लगा । कुछ विचारकों ने कहा- 'मैं कुछ भी नहीं हूं, सब कुछ परमात्मा है । परमात्मा ही भाग्य का विधाता है, भाग्य का कर्ता है । वह जैसे चलाता है, वैसे चलता हूं | मेरा अपना स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।' इस सिद्धान्त से अहंकार तो पुष्ट नहीं बना किन्तु हीन भावना की
वृद्धि हुई है। दोनों ओर समस्याएं उभर गयीं । एक ओर अहंकार का दैत्य • खड़ा है तो दूसरी ओर हीन भावना का दानव तांडव नृत्य कर रहा है | आदमी दोनों के बीच किंकर्तव्यविमूढ़ होकर खड़ा है कभी इधर झांकता है, कभी उधर झांकता है।
जैन दर्शन ने दोनों बातों को स्वीकार नहीं किया । उसने न अहंकार की बात को स्वीकारा और न हीन भावना की बात को स्वीकारा । उसने कहा—प्रत्येक कथन को अनेकान्त की दृष्टि से देखो, नय की दृष्टि से देखो। आगम का वाक्य है-'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य'-आत्मा ही सुख की कर्ता है और आत्मा ही दुख की कर्ता है। _ 'पुरिसा ! तुम मेव तुम मित्तं'-पुरुष ! तू ही तेरा मित्र है । इन आगम वाक्यों को एकान्तदृष्टि से नहीं समझा जा सकता | इन्हें अनेकान्तदृष्टि से ही समझा जा सकता है।
आचार्य भद्रबाहु और उत्तरवर्ती सभी जैन आचार्यों ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही कि ‘णत्थि णयविहूण जिणवयणं'-कोई भी जिन-वचन ऐसा नहीं है, जो नयदृष्टि से निरपेक्ष हो । प्रत्येक कथन को नयदृष्टि से देखो, सच्चाई
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