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१५६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता सरकारी दीया जलाया है । आगन्तुक इस प्रामाणिकता और नीतिमत्ता को प्रत्यक्ष कर विस्मित रह गया ।
क्या ऐसा व्यक्ति हो सकता है ? क्या इस प्रामाणिकता की कल्पना की जा सकती है ? ऐसा होता है । किसी-किसी व्यक्ति की पवित्र आत्मा में सत्यनिष्ठा का प्रकोष्ठ जाग जाता है और उसका अणु-अणु प्रामाणिकता से भर जाता है । वह कभी अप्रामाणिक नहीं हो सकता । जो साधना का जीवन जीते हैं, उन्हें इस सत्यनिष्ठा का अभ्यास ही नहीं, इसे जीवनगत करना जरूरी है । सत्य में बाधा डालने वाले विकारों और वासनाओं का अतिक्रमण करना आवश्यक है । यह होने पर ही सत्यनिष्ठा प्रज्वलित हो सकती है ।
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