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११६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता भी तथ्य की व्याख्या नहीं कर सकता | जितने तत्त्व व्याख्यायित होते हैं वे सारे के सारे इस त्रिपदी के माध्यम से होते हैं । भगवान् महावीर ने बतायाउसकी खोज करो जो परिवर्तन के बीच अपरिवर्तित है, जो प्रकंपन की दुनिया में भी अप्रकम्प है, अशाश्वत के मध्य शाश्वत है | भोग्य शाश्वत है, हमारी चेतना शाश्वत है । उसमें रूपांतरण होता है, उत्पाद और व्यय होता है । आदमी देव बनता है, पशु भी बन सकता है | आदमी बच्चा भी बनता है, जवान भी बनता है और बूढ़ा भी बनता है | जन्म लेता है और मरता है। इस सारे परिणमन और परिवर्तन के चक्र में चेतना का अस्तित्व कहीं विलुप्त नहीं होता । हमारी चेतना शाश्वत है । वीतरागता का मतलब है चेतना का अनुभव । जब-जब राग और द्वेष का अनुभव होता है, हम अपनी चेतना से परे हट जाते हैं। जब राग-द्वेष से मुक्त होकर वीतराग के क्षण में जीते हैं तब हम चेतना के अनुभव में जीते हैं ।
हमारा आदर्श है चेतना का अनुभव । हमारा आदर्श है राग-द्वेष से मुक्त होकर जीना | हमारा आदर्श है वीतरागता का जीवन जीना | जब आदर्श का निश्चय होता है तो फिर यात्रा शुरू होती है । हमारे विकास का पहला बिन्दु बना आदर्श का निर्धारण । वीतराग हमारा आदर्श है।
अब दूसरा बिन्दु विकास का बनेगा वीतरागता का जीवन जीना । केवल जानना नहीं है | मार्क्स ने कहा- भारतीय दर्शन केवल व्याख्या करते हैं। समाज को बदलते नहीं है । मुझे लगता है कि इसमें पूरी सचाई नहीं है। व्यवस्था के दृष्टिकोण से कहा जाए तो कुछ सचाई हो सकती है | जहां समाज के आर्थिक ढांचे के बारे में चिन्तन हुआ वहां न बदलने वाली बात सामने आ सकती है। किन्तु जहां आन्तरिक विकास की प्रक्रिया का प्रश्न है भारतीय दर्शन ने जीवन परिवर्तन के बहुत सुन्दर सूत्र दिए हैं, जीवन को बदला है । अवीतराग को वीतराग बनाने में सफलता प्राप्त की है । जैन दर्शन ने इस विषय में एक बहुत सुन्दर मार्ग प्रस्तुत किया था । इन वर्षों में पश्चिमी दर्शन के क्षेत्र में एक नये दर्शन का विकास हुआ, अस्तित्ववादी धारा का | अस्तित्ववाद ने एक सचाई तो बहुत सामने प्रकट की है और वह सचाई यह है कि बौद्धिक ज्ञान से हमारा काम पर्याप्त नहीं होता । हमें दोनों चाहिएबौद्धिक ज्ञान और आन्तरिक ज्ञान । तर्क का ज्ञान, हेतु का ज्ञान जरूरी है
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