________________
दर्शन वही, जो जिया जा सके | ११५ होता है और न कोई वस्तु आदर्श होती है । वीतराग आदर्श बनता है, केवल वीतराग । हमें वीतराग बनना है । एक आदर्श का निर्धारण हो गया । अब यात्रा शुरू हो सकती है । मार्ग का चुनाव हो सकता है | हमें वीतराग की दिशा में यात्रा करनी है और उस यात्रा के अनुरूप मार्ग का चुनाव करना है। निश्चित है हमारा आदर्श, निश्चित है हमारी यात्रा और निश्चित है हमारा मार्ग । कहीं कोई अनिश्चित नहीं है । - बहुत बार लोग पूछते हैं कि सिद्ध बड़ा है या अरिहंत ? बड़ा तो सिद्ध हो सकता है । तो फिर ‘णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं' पहले अरिहंत को नमस्कार, फिर सिद्ध को नमस्कार क्यों ?) इस प्रश्न का उत्तर भी दिया जाता है। किन्तु मैं आज इस पर दूसरे ढंग से सोचना चाहता हूं । इसका कारण है | अरिहंत हमारे लिए आदर्श बन सकता है, किन्तु सिद्ध हमारे लिए आदर्श नहीं बन सकता । सिद्ध आदर्श नहीं है । जो शरीर-मुक्त होकर जी रहा है, आत्मा के अस्तित्व को धारण कर रहा है, वह किसी शरीरधारी के लिए आदर्श नहीं बन सकता | शरीरधारी के लिए कोई शरीरधारी ही आदर्श बन सकता है। वीतराग और अरिहंत हमारे लिए आदर्श हैं क्योंकि शरीर में जीते हुए वे जिस प्रकार का जीवन जीते हैं, उसी प्रकार का जीवन हमें जीना है । सत्य को केवल जानना नहीं है । सत्य को केवल जीना है । और जीने में आदर्श हमारा अरिहंत बन सकता है, वीतराग बन सकता है, सिद्ध नहीं बन सकता । जिसमें शरीर नहीं, जिसको खाना नहीं, पीना नहीं, बोलना नहीं, काम नहीं करना, सर्वथा अकर्म, वह कर्मवाले व्यक्ति के लिए कभी आदर्श नहीं बन सकता । कर्म वाले व्यक्ति के लिए कर्म ही आदर्श बन सकता है | अरिहंत शरीर में जीता है, अरिहंत बोलता है, अरिहंत चलता है, खाता पीता है, सब कुछ करता है | करते हुए भी वीतराग बना रहता है । वही हमारे लिए आदर्श हो सकता है । इसीलिए बहुत चिन्तन के साथ यह किया गया कि पहले आदर्श को नमस्कार, फिर दूसरों को नमस्कार । इसलिए अरिहंत को नमस्कार बहुत न्यायसंगत और युक्तियुक्त है | पहले हम अपने आदर्श को सामने रखें और फिर दूसरों की चर्चा करें ।
वीतरागता एक भोग्य अवस्था है । वस्तु के अस्तित्व में तीन बातें होती हैं-- ध्रुव, उत्पाद और व्यय । जैन-दर्शन इस त्रिपदी को नमस्कार कर किसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org