SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शन वही, जो जिया जा सके । ११७ और प्रातिभ ज्ञान भी जरूरी है । जीवन को चलाने के लिए दोनों का समन्वय चाहिए । तर्क का ज्ञान बहुत आवश्यक है । उसके विकास के बिना सचाई को जानने में बहुत कठिनाई होती है | किन्तु यदि प्रातिभ ज्ञान का विकास नहीं होता है, अन्ददृष्टि का विकास नहीं होता है तो सचाई का जीवन जिया नहीं जा सकता । दोनों की सापेक्षता जरूरी है । अस्तित्ववाद के इस विचार को जब पढ़ता हूं तो आचार्य सिद्धसेन का वह सूत्र याद आ जाता है.---जो हेतुवाद के पक्ष में हेतुवादी है और जो प्रातिभज्ञान और अन्तज्ञान के पक्ष में अन्तर्जानी है, वह समय (सिद्धान्त) का सम्यक निरूपण करता है। जो केवल हेतुवाद और अतीन्द्रियवाद की चर्चा करता है, वह पंगु है । वह समग्र प्रतिपादन का अधिकारी नहीं हो सकता । आज से लगभग डेढ़ शताब्दी पूर्व जो बात सिद्धसेन ने कही थी, वही बात आज अस्तित्ववादी आचार्य या विद्वान् दोहरा रहे हैं। दोनों की जरूरत है.-- तार्किक ज्ञान की भी और प्रातिभज्ञान की भी । बौद्धिक विकास की भी और अन्तदृष्टि की भी । जो लोग केवल तर्क पर विश्वास करते हैं, वे शायद अपने जीवन-विकास की यात्रा को सम्पन्न नहीं कर सकते, बीच में ही उलझ जाते हैं और अटक जाते हैं । जीवन-विकास की यात्रा के लिए वीतरागता की दिशा में प्रस्थान करना जरूरी है और उसका अभ्यास करना जरूरी है । वीतरागता का जीवन जीने के लिए जैन दर्शन ने तीन आलम्बनों का उपयोग किया । पहला आलम्बन है— सत्यग्राही दृष्टिकोण । हमारा दृष्टिकोण सत्यग्राही होना चाहिए । इसी विचार से जैन आचार्यों ने नयवाद का विकास किया । कहीं भी आग्रह नहीं। नयवाद के दो आधार बनते हैं सापेक्षता और समन्वय । व्यक्ति और समाज हमारे सामने हैं। कुछ लोग एकान्ततः व्यक्तिवादी वृत्ति के होते हैं । वे सारा भार व्यक्ति पर डाल देते हैं । कछ लोग समाज का आग्रह रखते हैं। राजनीतिक प्रणालियों में, समाजवादी और साम्यवादी प्रणाली में समाज पर सारा भार डाल दिया जाता है । इधर व्यक्ति का विकास सब कुछ है तो उधर समाज का विकास ही सब कुछ है । किन्तु व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का तब तक सम्यक् निर्धारण नहीं किया जा सकता जब तक कि हमारा दृष्टिकोण सापेक्ष नहीं होता । व्यक्ति निरपेक्ष समाज और समाज-निरपेक्ष व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं होता । समाज सापेक्ष व्यक्ति और व्यक्ति सापेक्ष समाज का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy