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११८ | मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता ही मूल्य हो सकता है और तभी सम्यक् विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है।
सत्यग्राही दृष्टिकोण का एक सूत्र है--सापेक्षता । यह सापेक्षता प्रातिभज्ञान और तार्किकज्ञान में भी विकसित होती है । केवल तार्किक ज्ञान नहीं, केवल अन्तर्दृष्टि का ज्ञान नहीं, केवल अध्यात्म नहीं और कोरा व्यवहार नहीं । केवल व्यवहार होता है तो स्थूलता आ जाती है । इतनी स्थूलता कि सत्य कहीं छूट जाता है । कोरा निश्चय होता है तो अध्यात्म में कोई शक्ति नहीं आती । दोनों जरूरी होते हैं । यानी सम्प्रदाय भी आवश्यक है और अध्यात्म भी आवश्यक है । अगर सम्प्रदाय-शून्य अध्यात्म होता है तो वह कुछ व्यक्तियों के लिए काम का होता है । जनता के लिए कोई काम का नहीं बनता । कुछ व्यक्ति कंदराओं में बैठकर अध्यात्म की साधना कर लें, पर शेष लोग बिल्कुल वंचित रह जाते हैं और उनके जीवन का कोई मार्ग निश्चित नहीं होता । जरूरी है समाज, जरूरी है संघ, जरूरी है संगठन और जरूरी है सम्प्रदाय । जो लोग संगठन का विरोध करते हैं, सम्प्रदाय का विरोध करते हैं, संघ का विरोध करते हैं, केवल अकेलेपन की बात करते हैं । वे भी सचाई को नहीं पकड़ पा रहे हैं । उनका भी आग्रह हो गया कि अकेला होना अच्छा है । एक-दो आदमी अच्छे हो गए। उससे हुआ क्या ? उनका दृष्टिकोण भी रूढ़िवादी हो गया । एक-दो व्यक्ति अच्छे हो गए, किन्तु जिस दुनिया में जीना है, क्या वह अकेला व्यक्ति भी रह सकेगा । पहले तो मान लिया जाता था कि हिमालय की कन्दरा में जाकर बैठ गया, अब वह शान्ति का जीवन जी सकता है । किन्तु एक ओर तो अणुशस्त्रों की विभीषिका, सारा वातावरण प्रदूषण से व्याप्त, इस स्थिति में क्या हिमालय बचा रह पाएगा? कभी संभव नहीं । आज हिमालय भी प्रदूषण से वंचित नहीं है । दुनिया का कोई भी कोना प्रदूषण से वंचित नहीं है । कहां जाएगा ? कौनसी गुफा है ? कौन-सी-कन्दरा है जहां जाकर व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव कर सके ? यह संक्रमण की दुनिया है । एक विचार यहां कांकरोली में बैठे व्यक्ति के मन में पैदा होता है, और उस विचार के परमाणु सारे संसार में फैल जाते हैं | न हिमालय बचता है और न कोई गुफा ही बचती है । इस संक्रमण की दुनिया में हमारे पास ऐसा कौन-सा कवच है कि हम अपने आपको
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