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दशन वहा, जो जिया जा सक / ११९
सर्वथा बचा सकें । इस दिशा में वीतराग लोगों ने भी प्रयास किया कि दुनिया भी अच्छी बने, जनता भी अच्छी बने । अच्छे लोगों का संघ बने । समाज बने, समुदाय बने । यदि ऐसा नहीं बनता है तो विकट स्थिति पैदा हो जाती है । वीतराग को भी जीवन जीना होता है । मन पर प्रभाव चाहे न आए, किन्तु उसके शरीर पर तो प्रभाव पड़ेगा ही । वह मानसिक विचारों से बीमार नहीं पड़ेगा किन्तु दुनिया के वातावरण से तो बीमार बन सकता है । खानपान से तो बीमार बन सकता है । तो जिस दुनिया के बीच में जीना है, जिस जनता के मध्य जीना है, उसको वीतरागता की दिशा में प्रेरित करना, यह वीतराग का भी धर्म और कर्तव्य होता है । इसीलिए संघ-सम्प्रदाय कोई बुरी बात नहीं है । वह बहुत आवश्यक है। किन्तु केवल संघ, संगठन और सम्प्रदाय में ही सारी दृष्टि अटक जाए तो यह बुरी बात है । हमें संघ और सम्प्रदाय में जो सचाई है, जो सत्य है, उसका अवतरण करना है, निश्चयदृष्टि का आलम्बन लेना है, अध्यात्म को विकसित करना है । नहीं तो वह थोथा हड्डियों का ढांचा भर रह जाएगा । वहां सत्य का संचार नहीं होगा | आदमी मर गया । उसका शरीर ताजा का ताजा है । न सिकुड़म, न कुछ और, पूरा का पूरा चेहरा । किन्तु केवल प्राण नहीं रहा । वह हड्डियों का मात्र ढांचा बचा। चैतन्य उड़ गया । तो बिना सत्य के, बिना निश्चय के और बिना अध्यात्म के संगठन और संघ मात्र हड्डियों का ढांचा रह जाएगा । उसमें प्राण नहीं रहेगा । उसमें तेजस्विता नहीं रहेगी । उसमें चैतन्य नहीं रहेगा ।
इन दोनों वृत्तियों की सापेक्षता हमारा मार्ग बन सकती है । न अकेला व्यक्ति मार्ग बन सकता है और न कोरा समाज मार्ग बन सकता है। दोनों का योग ही हमारे विकास की यात्रा का मार्ग बन सकता है । सत्यग्राही दृष्टिकोण का चरण और आगे बढ़ता है तो वहां ज्ञान और क्रिया का समन्वय होता है । किसने कहा कि दर्शन जीया नहीं जा सकता ! मैं सोचता हूं कि जो दर्शन जीया नहीं जा सकता, वह हवाई उड़ान होता है, आकाशी कल्पना होती है, यथार्थ नहीं होता । वही दर्शन वास्तविक हो सकता है जो जीया जा सकता है । वह आदर्श किसी काम का नहीं, जो व्यवहार में न आ सके । और वह व्यवहार किसी काम का नहीं, जो आदर्श तक न पहुंचाया जा सके । आदर्श और व्यवहार दोनों का योग होना चाहिए ।
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