SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संप्रदाय और धर्म आचार्य समन्तभद्र काशी - नरेश की सभा में गए। राजा ने पूछा- आप कौन हैं ? आप अपना परिचय प्रस्तुत करें । आचार्य ने कहा आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पंडितोऽहं, दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां 'जलधिवलयामेखलायामिलाया-' माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ॥ ‘मैं आचार्य हूं, कवि हूं, पंडित हूं, ज्योतिषी हूं, दैवज्ञ हूं, मांत्रिक हूं, तांत्रिक हूं, वाद-विवाद-कुशल हूं, वैद्य हूं । राजन् ! इस समस्त पृथ्वी पर मैं आज्ञासिद्ध हूं, और सरस्वती देवी मुझे सिद्ध हैं, मैं सारस्वत - सिद्ध हूं ।' इस श्लोक को पढ़ते ही लगता है कि आचार्य ने अपना अहं प्रदर्शित किया है । उन्होंने अभिमान की गाथा गा दी । प्रत्येक शब्द में अहं बोल रहा है । किन्तु यह अभिमान नहीं, तेजस्विता का सूत्र है । प्रश्न होता है कि कौन संप्रदाय तेजस्वी हो सकता है । वही संप्रदाय तेजस्वी हो सकता है जिसमें आचार्यत्व होता है, कवित्व होता है, पांडित्य और दैवज्ञता होती है, ज्योतिर्विज्ञान का अगाध ज्ञान होता है, देश और काल को जानने की क्षमता होती है, जिसमें तंत्र-मंत्र की शक्ति होती है, जिसे तितिक्षा का सूत्र उपलब्ध है, जिसका दर्शन-केन्द्र या आज्ञाचक्र जागृत होता है, जिसकी अन्तर प्रज्ञा जागृत होती है और जिसे सरस्वती का वरदान प्राप्त है । यह सारा तेजस्विता का सूत्र है । संप्रदाय थे, संप्रदाय हैं और संप्रदाय रहेंगे। हम यदि कल्पना करें कि संप्रदाय न हो, यह असंभव बात है । प्रश्न होता है कि यह असंभव क्यों ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003111
Book TitleMain Hu Apne Bhagya ka Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy