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संप्रदाय और धर्म / १८१
इसका उत्तर है, जब तक विचार की स्वतंत्रता है तब तक संप्रदाय का होना भी स्वीकृत है | यदि हम कल्पना करें कि एक राज्य, एक संप्रदाय, एक विचार, एक आचार और एक दृष्टिकोण हो जाए तो वह अति - कल्पना होगी और यह कल्पना मानव जाति के विकास में बाधक ही होगी, प्रतिरोध पैदा करने वाली होगी । इससे विकास कुंठित होता है । यदि सारे लोग एक दृष्टि से सोचने लग जाएं तो वह सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा मनुष्य समाज का । पांचों अंगुलियों को जिस दिन एक कर दिया जाएगा, उस दिन हमारी सारी कार्यक्षमता समाप्त हो जाएगी। ये पांचों अंगुलियां अलग-अलग हैं, इसलिए हम अनेक कार्य सम्पन्न कर सकते हैं। कुछेक कार्य एक अंगुली से निष्पन्न होते हैं और कुछेक कार्य तीन या पांच अंगुलियों से निष्पन्न होते हैं। सबका अपनाअपना कार्य है ।
संप्रदाय का होना एक अनिवार्य प्रक्रिया है ।
एक बार राजा भोज के मन में यह बात उत्पन्न हुई कि विभिन्न विचार रखने वाले धर्माचार्यों को एक कर दूं। उसने धर्मगुरुओं को बुलाया और सबको कारागृह में डालते हुए कहा- जब तक आप सब एकमत नहीं हो जाते, एक विचार वाले नहीं हो जाते तब तक आपको कारागृह से मुक्ति नहीं मिल सकेगी | सब कारागृह में चले गये, बन्दी बन गये । यह बात सर्वत्र फैल गई । एक शक्तिशाली जैन आचार्य ने यह सब सुना । वे राजा के पास आए। राजा ने पूछा- 'महाराज ! आपने धारा नगरी देखी है ?' आचार्य बोले— 'हां, राजन ! मैंने नगरी का अवलोकन किया है ।'
'कैसी लगी नगरी ? '
'नगरी सुन्दर है, किन्तु अव्यवस्थित है ।'
'कैसी अव्यवस्था ।'
'बाजार अच्छे नहीं हैं ।'
'क्यों ?'
'बाजार में सैकड़ों सैंकड़ों दूकानें हैं। क्या आवश्यकता है उन दूकानों की ? क्या सब दूकानों को एक कर एक बड़ी दूकान नहीं की जा सकती है ? जब एक ही बड़ी दूकान होगी तो वह बाजार सुन्दर दीखने लग जाएगा ।' 'महाराज ! यह बात अव्यावहारिक है । आप व्यवहार की दुनिया को
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