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१८२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता नहीं जानते । आदमी के जीवन को चलाने के लिए सैकड़ों चीजें चाहिए । किसी को आटा चाहिए, किसी को नमक और किसी को चावल । किसी को सोना चाहिए तो किसी को चांदी | फिर भला सबकी आवश्यकताएं एक ही दूकान पूरी कर सके, यह कैसे संभव हो सकता है ? एक दूकान में ये सारी चीजें कैसे रखी जा सकती हैं ? कैसे उन्हें बेचा जा सकता है ? दूकानें अलग-अलग होने से यह दुविधा नहीं होती । सबकी आवश्यकताएं पूरी होती हैं और कोई अव्यवस्था नहीं रहती ।'
‘राजन् ! आपका कथन यथार्थ है । आप सर्वशक्ति-सम्पन्न हैं । फिर भी जब आप सभी दूकानों को एक नहीं कर सकते और एक करने की उपयोगिता नहीं मानते तो भला विचारों की दूकानें एक कैसे हो सकती हैं ? वे अलग-अलग हैं तब उनकी उपयोगिता है ।'
राजा को बात समझ में आ गई । उसने तत्काल सब धर्म-गुरुओं को कारागृह से मुक्त कर दिया ।
यह अतिकल्पना है कि सब एक ढंग से सोचें, एक ही ढंग से कार्य करें । संप्रदाय का विकास विचार-स्वतंत्रता का विकास है । यह था, है और रहेगा । इसे रोका नहीं जा सकता, मिटाया नहीं जा सकता । जब तक रागद्वेष है, चिन्तन और विचार की स्वतंत्रता है, बुद्धि की क्षमता है, तब तक संप्रदाय रहेगा । अब प्रश्न है तेजस्विता का । सब दूकानें समान रूप से समर्थ नहीं होतीं। दुकानदार का अपना धर्म होता है, आचार-संहिता होती है । उसका पालन अनिवार्य होता है । ग्राहक स्वतंत्र है । वह किसी भी दूकान पर जाकर वस्तु खरीद सकता है । कोई दूकानदार यदि ग्राहक की इस स्वतंत्रता का विरोध करता है तो वह आचार-संहिता का उल्लंघन करता है ।
तेजस्विता की भी एक आचार-संहिता होती है । धर्मसंघ या संप्रदाय तेजस्वी बनता है ज्योति से, शक्ति से । शक्तिशाली बनने के लिए चार बातें आवश्यक हैं--श्रद्धा, आचार, विचार और अभिव्यक्ति की क्षमता । जिस संप्रदाय में आस्था या श्रद्धा का बल नहीं है, वह संप्रदाय बुझी हुई आग है, जिससे तेजस्विता की ज्योति कभी प्रज्वलित नहीं हो सकती । आस्था जिसने खो दी, श्रद्धा का बल जिसने खो दिया, उसके पैर लड़खड़ाते रहते हैं । वह चल नहीं पाता । चलेगा भी तो लड़खड़ाते हुए चलेगा । पता नहीं कब, कहां
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