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संप्रदाय और धर्म | १८३
गिर पड़े । जिस संप्रदाय में श्रद्धा का बल होता है, वही तेजस्वी होती है, दूसरा कोई तेजस्वी नहीं बन सकता ।
तेजस्विता का दूसरा सूत्र है—आचार | जिसका आचार पवित्र है, वह तेजस्वी बनता है | आचार्य भिक्षु ने यह अनुभव किया कि चरित्र को पवित्र करने की आवश्यकता है । उन्होंने एक आचार-संहिता का निर्माण किया ।
किन्तु विचारशून्य आचार कब तक चल सकता है ? इसलिए आचार के साथ-साथ विचार का बल भी होना चाहिए | विचार कितना परिपक्व है, सिद्धान्त कितना पुष्ट है, आचार की भित्ति कितनी दृढ़ है, यह भी तजेस्विता का सूत्र होता है।
अभी राणावास चातुर्मास सन् ८२ में हम आचार्य भिक्षु के जीवन ग्रंथों का पारायण कर रहे थे । हमने देखा कि प्रत्येक आचार की पृष्ठभूमि में विचारों की पवित्रता और दृढ़ता है । कोई भी आचार विचारशून्य नहीं मिला । प्रत्येक आचार के लिए पूछा जा सकता है कि इसका आधार क्या है ? दर्शन क्या है ? आचार के साथ-साथ विचार भी होना चाहिए ।
केवल विचार उतने प्रभावक नहीं होते । प्रभावक होती है उन विचारों की अभिव्यक्ति की क्षमता । मैं तेरापंथ के परिप्रेक्ष्य में मीमांसा कर रहा हूं | आचार्य भिक्षु आचारतंत्र को लेकर चले और आचार के संबंध में कुछ अवधारणाएं प्रस्तुत की । यदि उनमें विचारों की दृढ़ता नहीं होती, बौद्धिक क्षमता नहीं होती और अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं होती तो वे स्वयं साधना कर सिद्ध हो जाते, उनका निर्वाण हो जाता, पर तेरापंथ का उदय नहीं होता ।
आचार्य भिक्षु में विचारों को अभिव्यक्त करने की प्रबल क्षमता थी । वे कुशाग्रबुद्धि से सम्पन्न थे । प्रत्येक बात की तह तक पहुंचकर वे उसके हार्द को पकड़ लेते थे।
बुद्धि चार प्रकार की होती है१. औत्पत्तिकी बुद्धि-तत्काल और सहज उपज वाली बुद्धि । २. कार्मिकी बुद्धि-कार्य करते-करते परिष्कृत होने वाली बुद्धि । ३. वैनयिकी बुद्धि-विनय से उपलब्ध बुद्धि ।
४. पारिणामिकी बुद्धि-आयु बढ़ने के साथ-साथ विकसित होने वाली बुद्धि ।
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