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२५२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कोई जगत् नहीं था । व्यक्ति जगत् नहीं होता, पर वह इतना शक्तिशाली होता है कि समूचे जगत् को प्रभावित कर देता है । महावीर और बुद्ध जगत् नहीं थे । किन्तु जिस व्यक्ति में जितनी गहरी आस्था होगी, उस व्यक्ति में उतनी ऊंचाई आ जाएगी, वह ऊंचाई उसके लिए दृश्य बन जाएगी । प्रश्न है आस्था का । आज सबसे बड़ी कमी है आस्था की | मनुष्य ने आस्था खो दी । आदमी की सत्य के प्रति आस्था नहीं है । अहिंसा के प्रति आस्था नहीं है। किसी बात के प्रति आस्था नहीं है । मनुष्य के प्रति भी उसकी आस्था नहीं है । विश्वास नहीं है ।
मिश्रा और वर्मा दोनों मित्र थे । एक बार वर्मा अपने मित्र मिश्रा के घर गया । घर का द्वार बंद था । नीचे से पुकारा । मिश्रा ने अपने नौकर से कहा- कह दो मिश्राजी अंदर नहीं हैं। नौकर ने ऊपर से कहा- भाई साहब ! मिश्राजी भीतर नहीं हैं। बाजार गए हैं। वर्मा अपने घर लौट गया ।
कुछ दिनों बाद कार्यवश मिश्रा वर्मा के घर गया । नीचे का द्वार बंद था । खटखटाया । ऊपर से वर्मा ने कहा— वर्माजी अभी बाहर गए हुए हैं । घर में नहीं हैं | मिश्रा बोले-अरे, तुम सामने खड़े हो और अपनी उपस्थिति को स्वयं नकार रहे हो ! तुम तो बड़े विचित्र मित्र निकले !
वर्मा ने कहा- वाह ! मैंने तो तुम्हारे नौकर पर भी भरोसा कर लिया था और तुम मुझ पर भरोसा नहीं कर रहे हो ! तुम बड़े विचित्र मित्र हो ।
आज आदमी आदमी पर ही नहीं, किसी पर भरोसा नहीं करता । भरोसा स्वयं पर भी नहीं है और साथ रहने वालों पर भी नहीं | पति का भरोसा पत्नी पर नहीं है और पत्नी का भरोसा पति पर नहीं है । किसी का किसी पर भरोसा नहीं है । 'आस्था' नाम के तत्त्व का आज जितना ह्रास हुआ है, अतीत में हुआ या नहीं, इसका अनुसंधान करना होगा । जब आस्था टूटती है तब आदमी के पैर लड़खड़ा जाते हैं । आज अहिंसा के प्रति आदमी के मन में कोई आस्था नहीं रही । यह कहने में कोई कठिनाई नहीं है ।
अहिंसा का अर्थ है- राग द्वेष-मुक्त जीवन जीना, स्वतंत्रता का जीवन जीना, निष्पक्षता का जीवन जीना । किन्तु आज प्रत्येक व्यक्ति आवेश का जीवन जी रहा है । राग-द्वेष का जीवन जी रहा है और पक्षपात का जीवन जी रहा है । राग-द्वेष मुक्त जीवन जीने के प्रति उसकी कोई आस्था नहीं
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