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अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत । २५३
है । इस विषम स्थिति में पहला काम यह होता है कि आदमी में अहिंसा के प्रति आस्था निर्मित की जाए । पांच-दस व्यक्ति भी यदि गहरे आस्थावान् बनाए जा सकें तो जागतिक काम हो सकेगा। पूरे जगत् पर कभी पानी नहीं छिड़का जा सकता, किन्तु पानी के अपने-अपने स्रोत हैं । अगर एक स्रोत कहीं शक्तिशाली होता है तो उसकी पहुंच सारे संसार तक हो सकती है । यदि अहिंसा का प्रयोग कहीं सफल होता है तो आदमी की उसके प्रति आस्था अवश्य जागती है । कठिनाई है प्रयोग और प्रशिक्षण की ।
आज भी यह एक प्रश्न बना हुआ कि अहिंसा में विश्वास करने वाले जितने संस्थान हैं, क्या उनमें कहीं वैज्ञानिक प्रणाली से अहिंसा का शोध हो रहा है ? प्रयोग हो रहा है ? क्या कहीं हृदय परिवर्तन का प्रयोग किया जा रहा है ? यह तो सुनने को मिलेगा कि साम्यवादी देशों में ब्रेन-वाशिंग का प्रयोग चल रहा है, प्रशिक्षण चल रहा है ? किन्तु कहीं भी अहिंसा का प्रशिक्षण दिया जा रहा हो ऐसा सुनने में नहीं आता । एक ओर तो शक्तिशाली अस्त्रों का प्रयोग और एक और केवल भाषण । दोनों में सामंजस्य कहां है ? आज प्रत्येक अहिंसावादी के सामने यह चिन्तन का प्रश्न है। जब तक इस पर गंभीरता से चिंतन नहीं किया जाएगा, अहिंसा की दुहाई देने वाला व्यक्ति स्वयं हास्यास्पद बनता चला जाएगा ।
अणुव्रत आन्दोलन को चलते कितने वर्ष बीत गए । अहिंसा उसका पहला अणुव्रत है । 'संकल्पपूर्वक किसी जीव की हिंसा नहीं करूंगा' यह उसका पहला संकल्प है। क्या इतना सा संकल्प स्वीकारने से अणुव्रत आन्दोलन चरितार्थ हो जाएगा ? उसकी उपयोगिता प्रमाणित हो जाएगी ? यह एक प्रश्नचिह्न है । इसी प्रश्न को समाहित करने के लिए चिन्तन चला और चलता रहा है । अहिंसा के संकल्प को स्वीकारने से अहिंसा चरितार्थ नहीं होती । उस संकल्प में बाधा डालने वाले जितने तत्त्व व्यक्ति में हैं, उनकी सफाई की जाए । उनके परिष्कार की कोई प्रक्रिया प्रस्तुत की जाए । व्यक्ति को बदला जाए | जब व्यक्ति बदलेगा तो उस बदलाव की प्रक्रिया होगी, अभ्यास और प्रशिक्षण होगा। इससे एक नहीं, अनेक व्यक्ति बदलेंगे। जो भी इस प्रक्रिया से गुजरेगा, वह बदलेगा । बिना अभ्यास के व्यक्ति नहीं बदलता । हर व्यक्ति को अभ्यास करना होता है । अभ्यास जैसे-जैसे पकता
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