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अहिंसा सार्वभौम और अणुव्रत / २५१
हिंसा का सारा विकास व्यक्ति की आकांक्षा के कारण हुआ है । उसको कैसे मिटाया जाए ? व्यक्ति को कैसे बदलें ? व्यक्ति की अक्रामक मनोवृत्ति में कैसे परिवर्तन ला सकें ? केवल आदेशों के द्वारा यह बात संभव नहीं हो सकती । उपदेश भी होगा, चिंतन भी होगा, अहिंसा से व्यक्ति प्रभावित भी होगा, किन्तु वह प्रभाव अस्थायी न बने, क्षणिक न बने । उसका स्थायित्व हो । उस स्थायित्व के लिए क्या किया जाए, इस पर वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करना होगा ।
व्यक्ति का मस्तिष्क रसायनों का भंडार है । हमारी ग्रन्थियां और मस्तिष्क बहुत रसायन पैदा कर रहे हैं। मस्तिष्क को सुपर केमीकल प्लाण्ट कहा जाता है । रसायनों को पैदा करने वाला मस्तिष्क एक बड़ा कारखाना है ।
मस्तिष्क में 'टेरोपिन' और 'थेरोपिन' नामक रसायन उत्पन्न होते हैं । ये दोनों संतुलन बनाए रखते हैं कि व्यक्ति आक्रान्ता न बने । किन्तु जब इनका संतुलन बिगड़ जाता है तब व्यक्ति की आक्रामक वृत्तियां जाग जाती हैं । आज बड़े-बड़े राष्ट्राध्यक्षों और सैनिक मनोवृत्ति वाले राजनेताओं का संतुलन बिगड़ा हुआ है । उनकी आक्रामक वृत्ति प्रबल हो रही है । यह संतुलन बिगड़ता है 'हाइपोथेरेप' का संतुलन बिगड़ने के बाद । जब व्यक्ति में आसक्ति और आवेग का प्रबल वेग होता है तब संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है । वह लड़खड़ा जाता है । ऐसे व्यक्तियों में यदि रासायनिक संतुलन स्थापित किया जा सके तो बहुत बड़ी बात होती है ।
मैं देखता हूं कि अनेक दिशाओं से प्रयत्न होना जरूरी है— धार्मिक और आध्यात्मिक मंच से, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मंच से, प्रायोगिक और राजनैतिक मंच से—इन सभी मंचों से मिला-जुला एक ऐसा प्रयत्न हो, जो हिंसा की भयानकता का निदान खोज सके । उसका कोई विकल्प खोज सके । ऐसा करने से सारी मनुष्य जाति का भला हो सकेगा । किन्तु चुनना होगा व्यक्ति को । व्यक्ति से प्रारंभ करना होगा। एक व्यक्ति से क्या होगा ? एक व्यक्ति से अनेक व्यक्ति होंगे। जब अनेक व्यक्ति शक्तिशाली बनते हैं तो सारे संसार को प्रभावित कर देते सबसे पहली बात है कि व्यक्तिव्यक्ति में गहरी आस्था जगा दे । गांधी कोई जगत् नहीं था, मार्टिन लूथर
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