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५२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता स्पन्दनों को पकड़ते-पकड़ते वह चेतना तक पहुंच जाता है, आत्मा तक पहुंच जाता है । यह प्रक्रिया है आत्मा के द्वारा आत्मा को देखने की । यह प्रक्रिया श्वास के परिस्पंदनों के ग्रहण से प्रारंभ होती है और धीरे-धीरे चैतन्य के सदनों तक पहुंच जाती है । यह मार्ग है आत्म-बोध का, आत्म-दर्शन का । ____ ध्यान और दर्शन दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । ध्यान का अर्थ होता है दर्शन । 'ध्ये चिन्तायाम् धातु से निष्पन्न ध्यान शब्द का अर्थ होता है चिंतन करना । 'ध्यां दर्शन धातु से निष्पन्न का ध्यान शब्द का अर्थ होता है दर्शन | इस प्रकार ध्यान के दो अर्थ हो गए चिंतन और दर्शन । प्रेक्षाध्यान में ध्यान शब्द देखने के अर्थ में है, चिन्तन के अर्थ में नहीं है। ध्यान का अर्थ है साक्षात्कार । संस्कृत शब्दकोश में निध्यानं अवलोकन ऐसा मिलता है । अवलोकन अर्थात् दर्शन का पर्यायवाची है निध्यान, ध्यान । निध्यान का अर्थ होता अवलोकन करना, निरीक्षण करना ।
प्राचीन काल में 'दर्शन' शब्द से साक्षात्कार का ही बोध होता था। आज जो दर्शन पढ़ाया जाता है वह मात्र तर्कशास्त्रीय दर्शन है । उसमें साक्षात्कार का प्रवेश भी नहीं है । उसे दर्शन की अपेक्षा तर्कशास्त्र कहना उचित होता है । मैं उस प्राचीन दर्शन की बात कह रहा हूं जहां दर्शन का अर्थ था साक्षात्कार ।
उपनिषद् में एक सुन्दर रूपक आता है। ऋषि का अर्थ होता है द्रष्यदर्शनात् ऋषि । जो साक्षात्कार करता है वह होता है ऋषि । जब सब ऋषि जाने लगे तब पूछा गया ऋषियों के अभाव में क्या होगा ? उत्तर में कहा गया---ऋषि जा रहे हैं, हम अब तर्क को दे रहे हैं । यही अब सब कुछ करेगा। इसी से काम चलाओ।
एक है ऋषि साक्षात् द्रष्य और एक है तर्क बौद्धिक व्यायाम । ऋषि चला गया, तर्क आ गया । तर्क ने ऋषि का स्थान ले लिया । आज आदमी के पास तर्क है, ऋषि नहीं है, साक्षात् दर्शन नहीं है। यदि हमारी दृष्टि स्पष्ट हो जाए कि तर्क और ऋषि, दर्शन और साक्षात द्रष्टा में बहुत दूरी है तो ध्यान का यथार्थ मूल्यांकन हम कर सकेंगे।
ध्यान केवल दर्शन है। ध्यानकाल में सुझाव दिया जाता है कि केवल जानें, केवल देखें, केवल अनुभव करें। यहां केवल क्यों ? केवल शब्द
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