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चेतना का रूपान्तरण : १/५१
तर्क-वितर्क के द्वारा, केवल वाणी के द्वारा उस महान् तत्त्व को जान लेना चाहता है । पर वह कभी नहीं जान पाता, सफल नहीं हो पाता । यदि कोरा तर्क हमारे हाथ में होता है तो सफलता मिलती नहीं, ध्येय प्राप्त होता नहीं। जब ध्येय प्राप्त नहीं होता है तो उसके दो परिणाम सामने आते हैं पहला है कलह और दूसरा है नास्तिकता । या तो वह परम तत्त्व के अस्तित्व को ही अस्वीकार कर देगा और कहेगा कि इतना खोजा, इतना प्रयत्न किया, पर मिला कुछ भी नहीं । अतः यह सारा बकवास है, मिथ्या है । वह नास्तिक बन जाएगा या वह वादविवाद में इतना उलझ जाएगा कि वह स्वयं आवेश में रहेगा और दूसरों को भी आवेश की स्थिति में ला देगा।
सूक्ष्मता में जाने के लिए चित्त को सूक्ष्म करना अत्यन्त जरूरी है । प्रेक्षाध्यान की पूरी प्रक्रिया चेतना के सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है । जब साधक श्वास के प्रति जागरूक होता है तब जो चित्त स्थूल बात को पकड़ रहा था, अब वह कुछ सूक्ष्म होने लगता है, कुछ एकाग्र होने लगता है और श्वास के स्पन्दनों को पकड़ने लगता है । संसार में दो ही तो अवस्थाएं हैं-द्रव्य और पर्याय—प्रकंपन । प्रत्येक पर्याय प्रकंपन है, कंपन है । आदमी प्रकंपनों से घिरा हुआ है । उसका पूरा व्यक्तित्व प्रकंपनों का व्यक्तित्व है | चारों ओर तरंग ही तरंग, प्रकंपन ही प्रकंपन, ऊर्मियां ही ऊर्मियां । यह प्रकंपनों का एक पिण्ड-सा है | पर्याय ही पर्याय हैं । द्रव्य को कभी देखा नहीं जा सकता, पकड़ा नहीं जा सकता। हम केवल पर्याय और प्रकंपनों को पकड़ते हैं। जब प्रकंपनों को पकड़ने की क्षमता विकसित हो जाती है तब उसका तात्पर्य होता है कि सूक्ष्म में प्रवेश करने की क्षमता आ रही है । श्वास के स्पन्दन, शरीर के स्पन्दन, शरीर में होने वाले रसायन, शरीर की विद्युत्-तरंगों के स्पन्दन- ये सारे सूक्ष्म हैं । साधक अभ्यास के द्वारा एक-एक कर इनको पकड़ने का प्रयास करता है । पहले श्वास के स्पन्दनों को पकड़ता है, फिर शरीर के स्पन्दनों को, फिर रसायनों को और फिर प्राण-तरंगों को समझने का प्रयत्न करता है। फिर वह भाव-तरंगों को, विचार-तरंगों को पकड़ने का प्रयास करता है और जानने लगता है कि कहां कौन-सी विचार-तरंगें उठ रही हैं, भाव तरंगें पैदा हो रही हैं आदि-आदि । फिर धीरे-धीरे वह कर्म-स्पन्दनों को पकड़ना प्रारंभ करता है । इन सारे स्थूल, सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम
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