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७० / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता में कस्तूरी पड़ी है, तीव्र गंध आ रही है और उस गंध की खोज में मृग दौड़ा फिर रहा है। कितनी विडम्बना ! वह उस सुगंध की खोज में जान गंवा देता है । उसे पता नहीं होता कि वह उसी की नाभि से आ रही है । वह गंध उसके पास में पड़ी हुई कस्तूरी की है।
हमारे पास दो शक्तियां हैं— ज्ञान और संवेदन | हम ज्ञान को बहुत कम काम में लेते हैं । ज्यादा काम लेते हैं संवेदन से । इन्द्रियां संवेदन पैदा करती हैं। त्वचा का संवेदन होता है, जीभ का संवेदन और स्पर्श का संवेदन होता है | ज्ञान संवेदन से भिन्न होता है । इसलिए प्रेक्षाध्यान के समय कहा जाता है...- केवल जानें, केवल देखें केवल ज्ञाताभाव, केवल द्रष्टाभाव । यह ज्ञान की अवस्था है, संवेदन की नहीं। संवेदन से परे की अवस्था है ज्ञाताभाव । ज्ञान से जाना जाता है, संवेदन से भोगा जाता है | जानने और भोगने में अन्तर है । जो शुद्ध ज्ञानी होता है, वह जानता है, भोगता नहीं । अज्ञानी आदमी जानता नहीं, भोगता है । बहुत बड़ा अन्तर है जानने और भोगने में । हम इन्द्रियों के जगत् में जीते हैं । हम जानते कम हैं, भोगते अधिक
हैं।
ध्यान करने वाला आदमी जानता अधिक है, भोगता कम है | ध्यान जैस-जैसे आगे बढ़ेगा, ज्ञाता और भोक्ता की अवस्था में अन्तर आता जाएगा । भोक्ता की दिशा बड़ी है, ज्ञाता की दिशा छोटी है । हम हर बात को भोगते चले जाते हैं । सुख-दुःख को भी भोगते हैं । प्राप्त है. उसे भी भोगते हैं और अप्राप्त है उसे भी भोगते हैं । भोक्ता का जगत् बहुत बड़ा है हमारे लिए, और ज्ञाता का जगत् बहुत छोटा है हमारे लिए । ध्यान से परिवर्तन घटित होगा, दिशा बदल जाएगी। तब ज्ञाता का जगत् बहुत बड़ा हो जाएगा
और भोक्ता का जगत सिमटकर छोटा हो जाएगा । ज्ञान बढ़ेगा, भोक्ता का भाव कम हो जाएगा । यही हमें घटित करना है । वास्तव में यही फलश्रुति है ध्यान की।
यह समस्याओं की दुनिया है । समस्याओं को रोका नहीं जा सकता | इस दुनिया में जन्म की समस्या है, मृत्यु की समस्या है, संयोग और वियोग की समस्या है । बुढ़ापे की समस्या है, अर्थाभाव की समस्या है, वैयक्तिक समस्याएं हैं, सामाजिक और राजनैतिक समस्याएं हैं । न जाने कितनी
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