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चेतना रूपांतरण / ६९ कभी इतनी एकाग्रता होती है कि काल का बोध समाप्त हो जाता है और तब जो आनन्द का अनुभव होता है वह वस्तुनिष्ठ नहीं होता, स्वतंत्र होता है । तब जो भीतर के स्पंदन जागते हैं, तेजोलेश्या के स्पंदन जागते हैं, उस समय इतनी सुखानुभूति होती है कि उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता । इस अनुभूति में दो-चार-दस घंटा बीत जाये, दिन और रात बीत जाये, आदमी तृप्त नहीं होता | वह उस आनन्द के महासागर में उन्मज्जननिमज्जन करता रहता है । एक नया अनुभव जागता है । उस समय न खाने की, न पीने की और न सोने की आवश्यकता महसूस होती है । भीतर में इतना सुख जाग जाता है कि उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
एक भाई ने कहा- 'मैंने ध्यान अवस्था में एक दिन इतने बढ़िया रंग देखे, आज तक वैसे रंग कभी नहीं देख पाया | कहां से आये ये रंग ! भीतर में जो रंग हैं, सुगंध है, ज्योति है, वे सब प्रकट होते हैं । जब व्यक्ति इन्द्रियातीत जगत् की सीमा में प्रवेश करता है वे सूक्ष्म स्पंदन जागते हैं और एक नयी सृष्टि का सर्जन करते हैं । यह नयी सृष्टि है सूक्ष्म जगत् । यदि व्यक्ति इन सूक्ष्म स्पंदनों का अनुभव इन्द्रियों के माध्यम से करना चाहे तो कभी संभव नहीं है । ध्यान की सारी चर्चा इन्द्रियातीत जगत् की चर्चा है।
कुछ व्यक्ति आकर पूछते हैं— महाराज, ध्यान की अमुक समस्या है, क्या करूं? मैं कहता हूं- यदि तुम्हारा प्रश्न बौद्धिक होता तो उस प्रश्न का उत्तर एक मिनट में दे देता । ध्यान की समस्या नहीं है । वह बुद्धि से नहीं सुलझती । वह अभ्यास से ही सुलझ सकती है । तुम अभ्यास करना नहीं चाहते और केवल बैद्धिक व्यायाम से उसे सुलझाना चाहते हो, यह कभी संभव नहीं होगा । हमारे पास जादुई डंडा नहीं है । ध्यान एक सच्चाई है | जीवन की वास्तविकता है । दो प्रकार के सत्य हैं— एक है पढ़ा हुआ सत्य
और एक है भोगा हुआ सत्य । यथार्थवादी धारा में भोगा हुआ सत्य ही कार्यकर होता है । स्वयं भोगो, स्वयं अनुभव करो, स्वयं देखो, फिर पता चलेगा कि क्या है, क्या नहीं है । जिस व्यक्ति ने थोड़े समय के लिए भी ध्यान किया है, उसने अनुभव किया है कि भीतर की दुनिया में कितना आनन्द भरा पड़ा है, वैभव और सुख भरा पड़ा है । उस विषय में कभी सोचा ही नहीं । आदमी जानते हुए भी अनजान बने बैठा है । 'कस्तूरी मृग नाभि मांही' मृग की नाभि
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