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६८ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता कितना अच्छा लगता है | यह सूरज की धूप कितनी अच्छी लगती है । धूप कितनी सुहावनी होती है । उस अंधे ने कहा- क्या बकवास कर रहे हो ! प्रकाश होता ही क्या है ! लोगों ने कहा-- प्रकाश होता है । अंधे ने कहामैं तुम्हारे कहने से नहीं मान सकता । मुझे हाथ में देकर दिखाओ कि यह प्रकाश है । यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो मैं प्रकाश को नहीं मान सकता ।
अब भला प्रकाश को हाथ में लेकर अंधे आदमी को कैसे विश्वास दिलाया जा सकता है कि प्रकाश का अस्तित्व है । जब आदमी का तर्क बन जाता है कि जो आंखों से दीखता है, वह सही है, और जो प्रत्यक्ष नहीं है, वह है ही नहीं तब यथार्थ को कैसे प्रमाणित किया जा सकता है ! ऐसे व्यक्ति अपने आप को सीमित दायरे में रखकर विराट् अस्तित्व को नकार देते हैं। इन्द्रियों की शक्ति अत्यन्त सीमित है | आंख में देखने की शक्ति है, पर वह एक सीमित दूरी पर रही हुई वस्तु को ही देख पाती है । कान में सुनने की शक्ति है, पर वह निश्चित फ्रीक्वेन्सी वाली शब्द-तरंग ही पकड़ पाता है। हमारे चारों ओर न जाने कितनी ध्वनियां हो रही हैं । वे कानों से टकराती हैं । पर कान उन सारी ध्वनियों को ग्रहण नहीं कर पाता । वे ही ध्वनियां कान मे ग्राह्य होती हैं जो कि निश्चित आवृत्ति में आती हैं । शेष ध्वनियां आती हैं, टकराती हैं और चली जाती हैं । यदि ऐसा न हो तो आदमी एक दिन में ही पागलं बन जायेगा । वह जी नहीं सकेगा । आदमी इसलिए जी रहा है कि उसकी इन्द्रियां एक सीमित संवेदन को ही देख-सुन पाती हैं । यदि सब कुछ वह देख सकता या सुन सकता तो अंधा हो जाता, बहरा हो जाता पागल हो जाता।
इन्द्रियों की हमारे लिए एक सीमा है । हम यह न मान बैठे कि इन्द्रियातीत जगत है ही नहीं । इन्द्रियातीत जगत बहुत बड़ा है। जब हमारा प्रवेश होता है इस जगत् में तब नये अनुभव जागते हैं । जिस व्यक्ति ने ध्यान के माध्यम से इन्द्रियातीत जगत् में प्रवेश किया है, वह वास्तविकता को समझ सकता है, सचाई को जान सकता है । अभी तो हमारा यही विचार होता है कि अच्छा भोजन मिलता है तो आनंद आता है । देखने को अच्छा दृश्य मिलता है तो सुख का अनुभव होता है । इन इन्द्रियों ने हमारे में वस्तुनिष्ठा पैदा कर दी, इसलिए वस्तु जगत् से परे की कल्पना भी नहीं कर सकते । ध्यान में कभी
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