________________
२२६ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता उन्हें लगा कि अध्यात्म का मूल तत्त्व नहीं पकड़ा जा रहा है | इन भावों के घटक बिन्दुओं, अहंकार और ममकार को नहीं पकड़ा जा रहा है | शिष्य बना लिये । दो-चार-दस शिष्य हो जायें। आचार्य बनने की बात मन में उभर आती है | पढ़-लिखकर विद्वान् बन गए, शक्ति-संपन्न हो गए तब सोचने का ढंग होता है—अब मैं किसी को गुरु या आचार्य मानकर क्यों चलूं ? मुझे स्वयं गुरु और आचार्य बनकर चलना है । मैं योग्य हो गया हूं। इस विचार ने पृथक् शाखा के उद्भव का बीज वपन किया । शाखा और शाखा का विस्तार होता गया । शाखाएं और उपशाखाएं और उनकी भी अवान्तर शाखाएं—न जाने कितना विस्तार हो गया । शायद वटवृक्ष में भी उतनी शाखाएं नहीं होंगी, जितनी एक समाज में बन गईं।
भगवान् महावीर के समय में कोई शाखा नहीं थी । भगवान् महावीर के दो सौ वर्षों के बाद तक कोई शाखा नहीं बनी । फिर शाखाओं का विस्तार होता गया । यह धारणा बना ली कि जहां वटवृक्ष है वहां शाखा का होना अनिवार्य है । अखंड शासन शाखाओं में बंट गया । जब एक शाखा थी, तब अहंकार और ममकार प्रबल नहीं था । जैन शासन अनेक शाखाओं में विभक्त हुआ और अहंकार भी प्रबल हो गया, ममकार भी प्रबल हो गया। जब अहंकार और ममकार प्रबल हुआ तब शाखाओं का विस्तार भी होता गया । उसका अन्त नहीं आया ।
आचार्य भिक्षु ने इस मूल समस्या पर विचार किया। उन्होंने देखा— ममकार भी प्रबल है और अहंकार भी प्रबल है । उन्होंने सोचा क्या ममकार
और अहंकार को छोड़ने के लिए अपने शिष्यों को उपदेश दूं? फिर सोचाउपदेश से बात बनेगी नहीं, क्योंकि चैतन्य अभी जागृत नहीं है ! उनके चैतन्य को जागृत करना है । उसका एक प्रायोगिक रूप सामने लाना है । केवल उपदेश कार्यकर नहीं होगा । प्रयोग से यदि बात सफल हो जाए तो बार बार उपदेश भी नहीं देना पड़ेगा । यदि प्रयोग सामने नहीं होगा तो उपदेश का कहीं अंत भी नहीं होगा । उपदेश देते चले जाओ । शिष्य बनाने वाले शिष्य बनाते चले जाएंगे । होगा वही जो संस्कार बना हुआ है।
आचार्य भिक्षु ने एक प्रायोगिक रूप प्रस्तुत किया । दीर्घकालीन चिन्तन और मनन के पश्चात् उन्होंने एक रूप तैयार किया । उसको तैयार करने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org