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चैतन्य-जागरण का अभियान / २२७ में उनको सोलह वर्ष लगे । उन्होंने प्रयोग की कुछ रेखाएं खींचीं । उन्होंने कहा—मेरा संघ प्रायोगिक संघ होगा । उसमें पहला प्रयोग यह होगा कि कोई भी सदस्य अपना शिष्य नहीं बना सकेगा | उसे सबसे पहले 'मेरा शिष्य' - इस ममकार का विसर्जन करना होगा । ममकार को कहीं अवकाश नहीं । न 'मेरा कपड़ा', न 'मेरी पुस्तकें कुछ भी मेरा नहीं । यदि कोई साधु कहे कि यह कपड़ा मेरा है, ये पुस्तकें मेरी हैं तो यह भाषा का गलत प्रयोग है । वह कहेगा—ये कपड़े मेरी निश्रा में हैं, ये पुस्तकें मेरी निश्रा में हैं, मैं इन्हें काम में ले रहा हूं | ये मुझे संघ द्वारा प्रदत्त हैं । मैं इनका उपयोग कर रहा हूं । उपभोग कर रहा हूं | आचार्य भिक्षु ने ममत्व-विसर्जन के इस बिन्दु को और आगे बढ़ाया । उन्होंने कहा—साधु-साध्वियों के संघाटक (ग्रुप) गांवगांव में विहरण करेंगे । उनमें एक मुखिया होगा, शेष उसके सहयोगी । वे सहयोगी या सहगामी साधु-साध्वी उन मुखियों के शिष्य नहीं होते, सहयोगी होते है । कोई किसी का शिष्य नहीं होता । सब गुरु-भाई हैं । जब वे विहार कर गुरु-चरण में आएंगे तब मखिया साध-साध्वी को ये शब्द उच्चस्वर से, सभा के बीच कहने होंगे-'गुरुदेव ! मैं प्रस्तुत हूं | मेरे साथ वाले साधु या साध्वियां प्रस्तुत हैं । ये पुस्तक-पन्ने प्रस्तुत हैं । आप मुझे जहां रखें, वहां रहने के लिए मैं सहर्ष तैयार हूं, प्रस्तुत हूं।' इतना कहे बिना वह अग्रगामी साधु या साध्वी पानी तक नहीं पी सकता । कुछ भी नहीं खा सकता । उसे ये शब्द उच्चारित करने ही होते हैं ।
आचार्य भिक्षु ने ममत्व-विसर्जन और अहंकार-विसर्जन के प्रयोग को और आगे बढ़ाया । उन्होंने कहा-तेरापंथ धर्मसंघ का कोई भी सदस्य पद के लिए उम्मीदवार नहीं बन सकता | बहुत बड़ी बात है । उन्होंने विचार
और चिन्तन की पूरी स्वतंत्रता दी, किन्तु उम्मीदवार बनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया । उम्मीदवार बनने का अर्थ होता है अहंकार का पल्लवन । मैं बहुश्रुत होना चाहता हूं। मैं चैतन्य-जागरण की दिशा में बढ़ना चाहता हूं | मैं कलाकार बनना चाहता हूं, यह सोचा जा सकता है । पर मैं अग्रगामी बनना चाहता हूं, मैं आचार्य बनना चाहता हूं, यह नहीं सोचा जा सकता । उम्मीदवार बनने की चाह पर ही उन्होंने नियंत्रण कर डाला । योग्य बनने की बात सोची जा सकती है । आचार्य पद के योग्य तथा अग्रगामी पद के योग्य बनने की बात
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