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शक्ति-संवर्धन का माध्यम : अणुव्रत / २०३ संकल्पशक्ति के हास का दूसरा कारण है चित्त की चंचलता | जब चित्त स्थिर नहीं रहता, तब संकल्प का बल बनता ही नहीं। संकल्प तब बनता है जब चित्त कहीं एकाग्र हो । सुबह संकल्प किया, मध्याह्न में टूट गया । विचार बदल गया । चित्त में इतने विकल्प आ गए कि संकल्प की बात बह गई । आदमी इस स्थिति में दिन में पचास बार संकल्प करता है और पचास बार तोड़ता है।
चित्त की चंचलता और इन्द्रियों के असंयम से निपटने के लिए व्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है । व्रत की साधना एक खुले दरवाजे को बन्द करने की साधना है | जब दरवाजा खुला होता है तब आंधी भी आ सकती है, रेत
और कूड़ा-करकट भी आ सकता है । खुला दरवाजा अव्रत है, बंद दरवाजा व्रत है । ऊपर छत नहीं है तो वर्षा भी आएगी, आंधी भी आएगी, आदमी पानी से भीगेगा, धूल से मटमैला होगा । उसने कमरा बनाया, छत बनाई, पास की दीवारें और दरवाजे बनाए । अब वह न पानी से भीगता है और न धूल से मलिन होता है । खुला आकाश अव्रत है और बंद आकाश व्रत
व्रत का अर्थ है—आच्छादन करना । आदमी की आकांक्षाएं और लालसाएं जो खुली पड़ी हैं, उन्मुक्त हैं, उनको ढक दिया, उन पर आवरण डाल दिया, यह व्रत है । व्रत की परम्परा भारतीय जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण रही है । व्रतों के कारण आदमी अनेक बुराइयों से बचता रहा है | व्रत के विकास से संकल्पशक्ति का विकास होता है, यह स्पष्ट है ।
जीवन में परिवर्तन घटित करने के लिए संकल्पशक्ति का महत्त्वपूर्ण योग रहता है | जैसे ध्यान का प्रयोग परिवर्तन का हेतु बनता है, वैसे ही भावना और संकल्प का प्रयोग भी परिवर्तन का हेतु बनता है ।
आदमी बदलता है । बदलने के लिए दो स्थितियां अपेक्षित होती हैं। एक है सम्मोहन और दूसरी है बल-संवर्धन । भावना का प्रयोग सम्मोहन की प्रक्रिया है । एक सुझाव दिया जाता है और व्यक्ति द्वारा सम्मोहित हो जाता है । सम्मोहन का प्रयोग स्वयं के द्वारा स्वयं पर भी किया जाता है । यह आत्मसम्मोहन की प्रक्रिया है । इसे आटो-सजेशन कहा जाता है । यह भावना का प्रयोग है । इसमें भीतर परिवर्तन घटित होने लगता है । भावना के द्वारा हम
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