________________
१२४ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
भी पूरे अपरिग्रही बन गए । सापेक्ष दृष्टि से तो अपरिग्रही बन गए, किन्तु शरीर भी तो परिग्रह है । ये कपड़े भी परिग्रह हैं । संस्कार भीतर बैठे हैं । वे भी तो परिग्रह हैं । मुर्छा भी परिग्रह है। क्या वीतराग बन गए ? अपरिग्रह की पूरी साधना कर रहे हैं किन्तु वीतराग बने विना कोई अपरिग्रही नहीं बन सकता । सापेक्ष बात है | महाव्रत भी सापेक्ष है | महाव्रत सार्वभौम है। किन्तु यह भी सापेक्ष बात है । निरपेक्ष बनेगा, वीतराग बनने के बाद । और सापेक्ष है, इसलिए भूल भी हो जाती है । जब तक व्यक्ति मंजिल तक नहीं पहुंच जाता, तब तक मार्ग के अवरोधों का सामना हर व्यक्ति को करना पड़ता है । अल्पीकरण का जो सूत्र दिया जैन दर्शन ने, मानता हूं कि पूरे जीवन को परिमार्जित करने का इतना बड़ा अवकाश दिया कि किसी को न निराश होने की जरूरत है और न किसी को अहंकार करने की जरूरत है । कोई साधु भी अहंकार न करे कि मैं पूर्ण अहिंसक बन गया । न कोई छोटे-सेछोटा गृहस्थ भी निराश हो कि मैं अपरिग्रही नहीं बन सकता । अहिंसक नहीं बन सकता । सभी बन सकते हैं । जो मार्ग अणुव्रत का है वही महाव्रत का है | आचार्य भिक्षु ने बड़ी मार्मिक बातें कही हैं । हम उनका सही मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा- साधु और गृहस्थ के धर्म दो नहीं हो सकते । जब कि कुछ लोग मानते थे कि साधु का धर्म अलग और गृहस्थ का धर्म अलग । आचार्य भिक्षु ने इसका निरसन किया । उन्होंने कहा कि धर्म दो नहीं हो सकता।
उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा- एक लड्डू है । एक व्यक्ति के पास पूरा लड्डू है और एक व्यक्ति के पास उसका टुकड़ा है, थोड़ा-सा है | आचार्य भिक्षु ने कहा- लड्डू लहू है । पूरा है उसका भी वही स्वाद और थोड़ा है उसका भी वही स्वाद | स्वाद में कोई अन्तर नहीं । मात्रा का अन्तर हो सकता है । स्वाद एक । लड्डू एक । अहिंसा अणुव्रत का भी वही स्वाद और अहिंसा महाव्रत का भी वही स्वाद । दोनों का एक ही स्वाद । कोई अन्तर नहीं है । कितना महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन किया है उस महाव्यक्ति ने । आचार्य भिक्षु को समझने के लिए आज सैकड़ों भिक्षुओं को जन्म लेने की जरूरत है और सैकड़ों दार्शनिकों को खपने की जरूरत है ।
यह अल्पीकरण की प्रक्रिया जीवन-विकास के मार्ग में बहुत महत्त्वपूर्ण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org