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. दर्शन वही, जो जिया जा सके । १२३ सड़कों पर, स्थान-स्थान पर गति-अवरोधक बनाए गए हैं । वाहन धीमे चलें, इतने तेज न चलें, जहां भी शहर आया, गति-अवरोधक बना दिया । यह प्रवृत्ति के मंदीकरण की प्रक्रिया बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । और यही है हमारी निवृत्ति (जिस व्यक्ति ने प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय साधना नहीं सीखा, वह जीवन-विकास की प्रक्रिया में आगे बढ़ना नहीं सीख सकता । बढ़ेगा तो संघर्ष भी पैदा होंगे । टकराहटें भी आएंगी, अवरोध आएंगे और वहीं लड़खड़ा जाएगा। आगे बढ़ने का मार्ग है प्रवृत्ति पर निवृत्ति का प्रभावी होना । कर्म पर अकर्म का प्रभावी होना या समिति पर गप्ति का प्रभावी होना ।
जीवन-विकास की इस प्रक्रिया में, वीतरागता की प्रस्थान यात्रा में यह अल्पीकरण का सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है । किसी को निराश होने की जरूरत नहीं । यह जरूरत नहीं कि संन्यासी बनना पड़ेगा, साधु बनना पड़ेगा । कोई जरूरत नहीं । यह तो आगे की बात है | महावीर ने हिंसा के अल्पीकरण पर बल दिया । अणव्रत यही तो है। यानी हिंसा का अल्पीकरण करो । महाव्रती बनने की बात तो बाद की है। आज ही तो महाव्रती नहीं बन जाओगे । अल्पीकरण तो प्रारम्भ करो । थोड़ा-सा तो छोड़ो । किसी प्राणी को संकल्पपूर्वक नहीं मारूंगा, यह तो स्वीकार करो । अल्पीकरण के मार्ग पर पैर तो बढ़ाओ। बचपन तब छूटता है जब गति आती है । चले बिना पैरों में ताकत नहीं आती । बच्चा चलता है, गिरता है, फिर ऐसा करते-करते पैरों में ताकत आ जाती है और एक दिन मां की अंगुली छोड़कर पैरों के सहारे चलने लग जाता है। चलना तो शुरू करो ।
प्रश्न उपस्थित किया गया कि क्या सत्य को तोड़ा जा सकता है, बांटा जा सकता है ? प्रश्न भी एक ऊंचे स्तर के व्यक्ति से आया । आचार्य विनोबा ने अणुव्रत की चर्चा में यह टिप्पणी की, हिंसा का अणुव्रत तो हो सकता है किन्तु सत्य का अणुव्रत नहीं हो सकता । लम्बी चर्चा चली । कानपुर में हमने विषय पर लिखा भी । एक साथ हम मंजिल तक नहीं पहुंच सकते । किन्तु कम-से-कम यात्रा तो शुरू करें । कदम आगे तो बढ़ाएं । यह कदम आगे बढ़ाने की प्रक्रिया है, न कि मंजिल तक पहुंचने की । एक साथ कोई व्यक्ति अपरिग्रही नहीं बन जाएगा । वह परिग्रह का अल्पीकरण करते-करते एक दिन पूर्ण अपरिग्रही बन सकता है | क्या आप यह समझते हैं कि महाव्रती
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