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१२२ / मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता
चलते-चलते हम पूरे अहिंसक बन सकते हैं किन्तु अल्पहिंसा करते-करते हम कभी अहिंसक नहीं बन सकते ।
अल्पीकरण की यह प्रक्रिया, अल्पीकरण का यह मार्ग, वीतरागता का जीवन जीने का मार्ग है । इस अल्पीकरण की यात्रा करते-करते आदमी एक निश्चित बिन्दु पर पहुंच सकता है। कितना सुन्दर एक दर्शन दिया ! इसमें कर्म और अकर्म का सहज समन्वय होता है । वीतराग भी कर्म करता है । शरीर का धारण, शरीर यात्रा का संचालन, हाथ-पैर का संचालन, कर्मेन्द्रियों का उपयोग, वीतराग सब कुछ करता है। पूरी जीवन की यात्रा को चलाता है । किन्तु वीतराग के प्रत्येक कर्म में अकर्म प्रभावित होता है और अवीतराग के प्रत्येक कर्म में कर्म प्रभावित होता है। कितना अन्तर है । अकर्म के प्रभावी होने में और कर्म के प्रभावी होने में ! जहां कर्म प्रभावी कर्म होता है, वहां अवीतराग को पल्लवन मिलता है। जहां कर्म में अकर्म प्रभावी होता है, वहां वीतराग को पोषण मिलता है । हमारा मार्ग है कर्म में अकर्म को प्रभावी बनाना । जैसे-जैसे हमारा राग और द्वेष कम होता चला जाता है, अकर्म प्रभावी बनता चला जाता है और कर्म गौण होता चला जाता है । अन्तर है गौणता और मुख्यता का । जहां कर्म मुख्य बनता है, वहां समस्या मुख्य बनती है ।
आचार्य श्री पटना पधारे। पटना विश्वविद्यालय में स्वागत का कार्यक्रम था । वक्ता थे डॉ० रामधारीसिंह दिनकर । उन्होंने एक बड़ी सुन्दर बात कही, "आचार्य श्री ! मैं आपके कार्यक्रम की और जैन दर्शन के कार्यक्रम की प्रशंसा करना चाहता हूं | आज के इस प्रवृत्ति- बहुल युग में यह निवृत्ति का कर्म एक प्रकाशपुंज बन सकता है, प्रकाश की किरण को बिखेर सकता है । आज का सारा संघर्ष, आज की सारी समस्याएं, ये प्रवृत्ति- बहुलता की समस्याएं हैं । पहले जब आदमी रास्ते पर चलते थे तो दुर्घटनाएं नहीं होती थीं । होती तो कहीं हजारों-लाखों में, कोई गिर जाता या टकरा जाता। पर आज प्रवृत्तिबहुलता है । इतने वाहनों का प्रयोग, इतनी ट्रकें, बसें, रेलगाड़ियां चलती हैं कि आए दिन कोई-न-कोई दुर्घटना होना स्वाभाविक बन गया है । जब प्रवृत्ति बढ़ेगी तो उसके साथ में टकराहट भी बढ़ेगी । यह निश्चित है, अनिवार्य है । यह हो नहीं सकता कि प्रवृत्ति बढ़े और संघर्ष न बढ़े | हमने देखा कि
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