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दर्शन वही, जो जिया जा सके / १२१
| दर्शन को जीया जाना है। वीतरागता का दर्शन । यह हवाई उड़ान नहीं है । यह जीवन जीया जा सकता है। जीने की प्रक्रिया जैन दर्शन में बहुत साफ है । वीतरागता का जीवन जीने के लिए अल्पीकरण की दिशा में प्रस्थान करो । यह तो नहीं होता कि आज एक संकल्प लिया, आदर्श का चुनाव किया, यात्रा शुरू की, पहला कदम उठा और वीतराग बन गए। ऐसा संभव नहीं है । यह प्रक्रिया नहीं है । यह पद्धति नहीं है । यह तो आरोपण होता है । प्रक्रिया है अल्पीकरण । आकांक्षा का अल्पीकरण, प्रमाद का अल्पीकरण, कषाय और आवेगों का अल्पीकरण । आकांक्षाओं को कम करते चलो, प्रमाद को कम करते चलो, मूर्च्छा को कम करते चलो। तुम्हारा प्रस्थान ठीक उस दिशा में होगा तो यह पतंग डोर से खिंची खिंची वहां चली जाएगी, जहां तुम चाहोगे। आदर्श एक डोरी है । वह जीवन की पतंग को इस प्रकार खींचती है कि कहीं इधर-उधर पतंग नहीं जाती । डोरी से बंधी हुई चलती है। आदर्श से बंधा हुआ व्यक्ति ठीक उसी दिशा में चलना शुरू हो जाता है । यह है अल्पीकरण की प्रक्रिया |
एक बार एक विदेशी लेखक ने बहुत सुन्दर बात लिखी । किसी ने कहा कि कम हिंसा हमारे जीवन का आदर्श है । इसका अनुसरण विदेशी लेखक ने किया । हमारे सामने यह प्रश्न आया तो हमने आचार्य भिक्षु के सिद्धान्त के आधार पर इसकी समालोचना की । अल्पहिंसा आदर्श है, यह मिथ्या सूत्र है । अल्प हिंसा हमारा आदर्श नहीं हो सकता हमारा आदर्श हो सकता है हिंसा का अल्पीकरण । दोनों का भेद समझें । अल्पहिंसा और हिंसा के अल्पीकरण में बहुत अंतर है । यदि कम हिंसा को आदर्श मान लेते हैं तो अहिंसा की बात प्राप्त नहीं होती । हिंसा का अल्पीकरण हिंसा की मान्यता नहीं है, किन्तु अहिंसा की दिशा में प्रस्थान है। इससे हिंसा को मान्यता नहीं मिलती । हिंसा को घटाते चलो। कम करते चलो। यह भेदरेखा खींचने का श्रेय अगर किसी एक व्यक्ति को दिया जा सकता है तो वह आचार्य भिक्षु को है । उन्होंने इस शब्द को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ा और दोनों (अल्पहिंसा और हिंसा का अल्पीकरण) में आकाश-पाताल का अन्तर बताया । ये दोनों बातें समानान्तर रेखा की भांति साथ-साथ चलती तो हैं, किन्तु कभी नहीं मिलतीं । कभी इनका योग नहीं होता । हिंसा के अल्पीकरण की दिशा में
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