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अंधकार से प्रकाश की ओर / ७३
'अधोऽधोपश्यतः कस्य, महिमा नो गरीयसी ।
उपर्युपंरि पश्यन्तः, सर्वमेव दरिद्रति ।। ऐसा कौन व्यक्ति है जो अपने से छोटों को देखकर अहंकार से न भर जाए ! ऐसा कौन व्यक्ति है जो अपने से बड़ों को देखकर अहंकार-रहित न हो जाए ! नीचे देखने का अर्थ है अहंकार से शून्य हो जाना ।
नीच देखना अहंकार ही नहीं, अंधकार भी है । अहंकार अंधकार, दोनों मिलते-जुलते शब्द हैं । अहंकार से बड़ा दुनिया में कोई अंधकार नहीं है । जिस व्यक्ति में अहंकार होता है, वह सदा अंधकार में रहता है । उसके लिए कभी सूर्योदय होता ही नहीं | कभी दीपक जलता ही नहीं । कभी बिजली जलती ही नहीं। अहंकारी आदमी की कभी आंखें नहीं खुलतीं । देखता कौन है ! दीया कभी नहीं देखता । बिजली-बत्ती कभी नहीं देखती । देखती हैं हमारी आंखें । जिस व्यक्ति की आंखें नहीं खुलतीं उसके लिए सूर्योदय हो जाए, चाहे दीया जल जाए, चाहे बत्ती जल जाए, वह देख नहीं पाता । जिस व्यक्ति की दो आंखें खुली होती हैं पर दो आंखों से देखना भी देखना नहीं होता । जिस व्यक्ति की तीसरी आंख नहीं खुल जाती, ज्ञान चक्षु, विवेक चक्षु, समता चक्षु नहीं खुल जाती वह दो आंखों से भी नहीं देख पाता ।
दुनिया में दो सबसे बड़े अहंकार होते हैं । एक अहंकार है 'मैं' और दूसरा अहंकार है-- 'मेरा' । 'मैं' यह सबसे बड़ा अहंकार है । आदमी जानते हुए भी इस सच्चाई को नहीं जानता । सचाई को जान ही नहीं पाता । हर जगह ये दो आंखें भी बंद हो जाती हैं। कभी अहंकार सामने आ जाता है, कभी ममकार सामने आ जाता है
आज तक यह संपत्ति किसी की नहीं बनी, आज तक यह वैभव किसी का नहीं बना— बात को सब जानते हैं, फिर भी इतना मेरापन है, इतना ममत्व, इतनी गहरी मूर्छा-आदमी सब सचाईयों को भुला देता है ।
दुनिया में अनेक धर्म हैं, अनेक नाम हैं । नाम तो संप्रदाय का होता है, धर्म का कोई नाम होता ही नहीं है | धर्म होता है--- अनाम । हम अनाम को भी नाम दे देते हैं । धर्म कोई शब्द नहीं होता । वह अशब्द होता है । हम उसे शब्द दे देते हैं । सब धर्म इस बात को स्वीकार करते हैं कि अहंकार और ममकार से बड़ा दुनिया में कोई अंधकार नहीं है ।
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